दिन गुज़रते हैं उलझन बढ़ाते हुए
अंतरे की तरह, अधलिखे गीत के
मन के निश्चय सभी हो कपूरी गए
धूप की अलगनी पर टंगे एक पल
स्वप्न सारे तिरोहित हुये, जब गए
नैन के द्वार की चौखटों से फिसल
खिड़कियों ने दिए दृश्य असमंजसी
जब अवनिका हटा कर हंसा था दिवस
सांझ के पंथ पर जब चली रोशनी
चार पग में गई थी डगर ही बदल
मौन की बांसुरी थी बजाती रही
टूट बिखरे हुए राग संगीत के
दोपहर पालकी में चढ़ी, थक गई
अंतरे की तरह, अधलिखे गीत के
मन के निश्चय सभी हो कपूरी गए
धूप की अलगनी पर टंगे एक पल
स्वप्न सारे तिरोहित हुये, जब गए
नैन के द्वार की चौखटों से फिसल
खिड़कियों ने दिए दृश्य असमंजसी
जब अवनिका हटा कर हंसा था दिवस
सांझ के पंथ पर जब चली रोशनी
चार पग में गई थी डगर ही बदल
मौन की बांसुरी थी बजाती रही
टूट बिखरे हुए राग संगीत के
दोपहर पालकी में चढ़ी, थक गई
राह में आते आते कहीं सो गई
सांझ पलके बिछा बाट जोहा करी
रात की छांह को ओढ़कर खो गई
पटकथा को बदल करते अभिनीत पल
ताकता रह गया पार्श्व से दिन खड़ा
अपने निर्देश की
,
ले छड़ी हाथ मेंउसके पहले अवनिका पतन हो गई
दीर्घाएं चिबुक पर रखे उंगलियां
देखती शून्य बिखरा हुआ सीट पे
रोशनी एक संशय में घिरती रही
सीढ़ियों पर चढ़े या उतर कर चले
भोर से दोपहर और फिर सांझ के
मध्य में कितने बिखरे हुए फासले
भौतिकी ने नियम ताक पर रख दिए
इसलिए प्रश्न मन के सुलझ न सके
और तुलसी का चौरा प्रतीक्षित रहा
दीप कोई तो अंगनाई में जल सके
और हम वक्त की करवटों पर खड़े
चुनते अवशेष मिटती हुई रीत के
2 comments:
मौन की बांसुरी थी बजाती रही
टूट बिखरे हुए राग संगीत के
-अद्भुत
सादर धन्यवाद भाइझी
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