दिन जब सो जाता परदों में


घर वापिस आकर थका हुआ दिन जब सो जाता पर्दों में
मेरी सुधियों के आँगन में यादों के दीपक जलते है

इक नई किरण की कलम थाम कोशिश रंगने की नया गगन
पर बीते कल के चित्रों में बदलाव न कर पाती कूँची
करते प्रयत्न अनवरत, थके कुछ जोड़ें या की घटा डालें
रह जाती है परिवर्तन बिन, वह एक अधूरी सी सूची

होते ही नहीं संतुलित सब, जब गुणा भाग के समीकरण
तब प्रश्न चिन्ह ले झुकी कमर चुपचाप निहारा करते हैं

उषा पाथेय सजा कर नित सौंपा करती है हाथों में
जीवन कर्मण्येवाधिकार  कहकर पथ भेजे आमंत्रण
अपने अपने है कुरुक्षेत्र ,आपने अपने है असमंजस
पर पार्थ एक हो पाता है अपने सारथि से निर्देशन

व्यूहों में घिरे हुए पल जब सारे ही व्यय हो जाते हैं
तब विवश, नीड़ की दिशि में पग, चाहे अनचाहे चलते हैं

झरते हैं पत्र कलेंडर की जर्जर सूखी शाखा पर से
कल जो इतिहास बन गया था फिर आज स्वयं को दोहराता
हर भोर सजे  संकल्पों को ढलती संध्या डंस लेती है 
हर बार अधूरा रहता तप, बस क्षमा मांगता रह जाता  

जीवन की यज्ञवेदियों से बिन पूर्णाहुति के उठे हुए 

साधक के सभी अपेक्षित वर हर बार अधूरे रहते हैं 

उम्र के इस मोड़ पर



उम्र के इस मोड़ पर आ प्रश्न करता मौन मुझसे 
क्या हुआ हासिल तुझे मन ? ये बता बन कर प्रवासी 

ज़िंदगी की इस नंदी में तीर से कट कर बहा तू
हर घड़ी मँझधार में घेरा करी  झंझाएँ आकर
बादलों के कम्बलों को ही यलपेटे दिन गुजरता 
और संध्याएँ सुनाती भैरवी ही गुनगुनाकर 

ढूँढता दिन रात लेकिन दृष्टि के वातायनों में
एक परिचित रश्मि की आभा नहीं उभरी ज़रा सी 

याद की अमराइयों में कूकती हैं कोयलें नित
छटपटाता वावरा मन  छाँव में इक बार आए 
और मदिराती हुई इक झोंक झालर को पकड़ कर
चीर कर सीमांत को इस ओर भी धुनकोई गाए

किंतु सपनों की सभी रखाए धुंधली रह गई है
भोर हर इक बार उगती ही रही  होकर कुहासी

दिन बिछाता आस की चादर सुनहरी ला डगर पर
साँझ चरवाही असंतुष्ट झुंड लेकर आइ वापस 
अर्ध व्यासों में बंधे बस घूमते इक परिधि पर ही
और चलता जा रहा है दूर होते समय का  रथ 

शेष संचय में मिले अनुराग की पाई छुवन है
जो निधि बन कर रही है मंत्रपूरित इक ऋचा सी 

चलो कुछ गुनगुनाएँ हम


तनी निस्तब्धता की झील में इक कंकरी फेंके
घिरे इस शून्य में थोड़ी चलो हलचल जगाएँ हम
हवा के नूपुरों की झाँझरी में झनझनाहट भर
मधुप की गूंजने लेकर चलो कुछ गुनगुनाएँ हम

उठे हैं उपवनों से गंध में डूबे हये कुछ स्वर
बुलाती हैं कली मुस्कान भर कर भेज आमंत्रण
हरी कालीन राहों पर बिछा कर दूब  बैठी है
चरण प्रक्षालने को पात्र में लेकर तुहिन के कण

उपेक्षाओं की चादर को उठा कर आज हम धर दें
मिले आतिथ्य का अवसर कलेजे से लगायें हम
लचकती टहनियो को आज अलगोजा बना कर के
अधर को खोल अपने, कुछ नए अब गीत गाएँ हम

उछलती नाचती लहरें छिड़े संगीत निर्झर के
लहर कर वादियों में चूनरी पूरबाइ की उड़ती
शिखर से पर्वतों  के मेघदूतों की चली टोली
उसे चल कर थमाएँ एक प्रिय के नाम की पाती

रखी जो ताक पर साकेत या फिर उपनिषद कोई
उठाएँ, जान लें उनमें छिपी जो सम्पदाएँ हम
पिरो कर गंध चम्पा की महकती केतकी के संग
थिरकती मोगरे की डाल से, कुछ लड़खड़ाएँ हम

अभी जो वक़्त यायावर रुका है चार पल द्वारे
उसे अपना बना कर साथ में दो चार  दिन जी लें
लुटाता  है समय सागर भरे कुछ मधूकलश इस पल
बढ़ाए आंजरी अपनी चलो छक  कर उन्हें पी लें

हमारी संस्कृतियों ने जो कभी सौंपा हमें,भूले
उसे अब आज स्मृतियों से चले लेकर उठाएँ हम
रहस्यों में घिरे अब तक अभी भी सूत्र जीवन के 
उन्हें कर लें अनावृत और फिर से मुस्कुराएँ हम 

मेरा नाम नहीं था




बही हवा की झालर पर जो रश्मि कलम ने पुष्प गंध से
शब्द लिखे, सारे पढ़ डाले लेकिन मेरा नाम नहीं था

उगे दिवस के कैनवास को  इजिल बने क्षितिज पर टांगा
हरी दूब के तुहिन कणों को अपने रंग पट्ट में भर कर
तितली के पर की छाया में संवरी हुई आकृतियाँ से ही
कितने चित्र बनाए उसने उतरी संध्या के आँचल पर

मैंने प्रिज्म  हाथ में थामे बारीकी से इन्हें निहारा
मेरा बिम्ब न होगा उनमे यह मुझको अनुमान नहीं था

कभी सिंधु के तट पर लेटी हुई लहर को चंद्रकिरण ने
हौले हौले छेड़ इबारत कोई अंकित की सिकता पर
पुरवाएँ की पगतलियों के चुम्बन की अनुभूति संजोई
और लिखा कोई संदेसा अनायास अकुला अकुला कर

मैंने पूछा तट पर बिखरे शंख शंख सीपी सीपी से
मेरे नाम कोई संदेसा होगा उनको ज्ञान नहीं था

इतिहासों ने भोजपत्र पर करवटलेकर लिखी कथाए
कालिदास के शाकुन्तल का रूप प्रेम में डूबा लेखन
जगन्नाथ के साथ लवंगी और केस लैला की बातें
दिनकर की उर्वशी, यक्ष का मेघदूत से अंतर्वेदन

सूरा मीरा और कबीरॉ के संग महाकाव्य कितने पढ़ डाले
ढाई अक्षर व्यक्त कर सके कोई भी आसान नहीं था

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...