चलो कुछ गुनगुनाएँ हम


तनी निस्तब्धता की झील में इक कंकरी फेंके
घिरे इस शून्य में थोड़ी चलो हलचल जगाएँ हम
हवा के नूपुरों की झाँझरी में झनझनाहट भर
मधुप की गूंजने लेकर चलो कुछ गुनगुनाएँ हम

उठे हैं उपवनों से गंध में डूबे हये कुछ स्वर
बुलाती हैं कली मुस्कान भर कर भेज आमंत्रण
हरी कालीन राहों पर बिछा कर दूब  बैठी है
चरण प्रक्षालने को पात्र में लेकर तुहिन के कण

उपेक्षाओं की चादर को उठा कर आज हम धर दें
मिले आतिथ्य का अवसर कलेजे से लगायें हम
लचकती टहनियो को आज अलगोजा बना कर के
अधर को खोल अपने, कुछ नए अब गीत गाएँ हम

उछलती नाचती लहरें छिड़े संगीत निर्झर के
लहर कर वादियों में चूनरी पूरबाइ की उड़ती
शिखर से पर्वतों  के मेघदूतों की चली टोली
उसे चल कर थमाएँ एक प्रिय के नाम की पाती

रखी जो ताक पर साकेत या फिर उपनिषद कोई
उठाएँ, जान लें उनमें छिपी जो सम्पदाएँ हम
पिरो कर गंध चम्पा की महकती केतकी के संग
थिरकती मोगरे की डाल से, कुछ लड़खड़ाएँ हम

अभी जो वक़्त यायावर रुका है चार पल द्वारे
उसे अपना बना कर साथ में दो चार  दिन जी लें
लुटाता  है समय सागर भरे कुछ मधूकलश इस पल
बढ़ाए आंजरी अपनी चलो छक  कर उन्हें पी लें

हमारी संस्कृतियों ने जो कभी सौंपा हमें,भूले
उसे अब आज स्मृतियों से चले लेकर उठाएँ हम
रहस्यों में घिरे अब तक अभी भी सूत्र जीवन के 
उन्हें कर लें अनावृत और फिर से मुस्कुराएँ हम 

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