दिन जब सो जाता परदों में


घर वापिस आकर थका हुआ दिन जब सो जाता पर्दों में
मेरी सुधियों के आँगन में यादों के दीपक जलते है

इक नई किरण की कलम थाम कोशिश रंगने की नया गगन
पर बीते कल के चित्रों में बदलाव न कर पाती कूँची
करते प्रयत्न अनवरत, थके कुछ जोड़ें या की घटा डालें
रह जाती है परिवर्तन बिन, वह एक अधूरी सी सूची

होते ही नहीं संतुलित सब, जब गुणा भाग के समीकरण
तब प्रश्न चिन्ह ले झुकी कमर चुपचाप निहारा करते हैं

उषा पाथेय सजा कर नित सौंपा करती है हाथों में
जीवन कर्मण्येवाधिकार  कहकर पथ भेजे आमंत्रण
अपने अपने है कुरुक्षेत्र ,आपने अपने है असमंजस
पर पार्थ एक हो पाता है अपने सारथि से निर्देशन

व्यूहों में घिरे हुए पल जब सारे ही व्यय हो जाते हैं
तब विवश, नीड़ की दिशि में पग, चाहे अनचाहे चलते हैं

झरते हैं पत्र कलेंडर की जर्जर सूखी शाखा पर से
कल जो इतिहास बन गया था फिर आज स्वयं को दोहराता
हर भोर सजे  संकल्पों को ढलती संध्या डंस लेती है 
हर बार अधूरा रहता तप, बस क्षमा मांगता रह जाता  

जीवन की यज्ञवेदियों से बिन पूर्णाहुति के उठे हुए 

साधक के सभी अपेक्षित वर हर बार अधूरे रहते हैं 

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