एक अनिर्णय


एक अनिर्णय हर शनि-रवि को अकस्मात् ही आकर घेरे
कहाँ गया आराम आज कल, बढ़ी व्यस्तता सुबह सवेरे

जो थे लाकड़ाऊन से पीड़ित,  उन सबको इक दिशा मिल गई
हर सप्ताह लग गई पाँतें, एक एक कर आयोजन की
नई संस्थाएँ उमड़ी हैं,  नित्या नए ही संयोजन  है
मेल बाक्स में बढ़ती संख्या नित नित नूतन आमंत्रण की

किसे चुनें य  किसे न चुने, असमंजस में घिर जाता मन
एक नया सरदर्द दो दिनों का बस रहा लगाता फेरे

गूगलमीट, फ़ेसबुक लाइव, वेब एक्स है और ज़ूम है
यूटूबित चैनल अनगिनती, हैं मुशायरे, कवि सम्मेलन
वीकेंड के केवल दो दिन, ढाई दर्जन प्रोग्राम हैं
किस को अस्वीकार करें हम, सब ने भेजे स्नेह निवेदन

कितने रहे अपरिचित, कितने हैं परिचय की सीमाओं में
किसी किसी से नाता गहरा। कुछ हैं केवल नत्थू खैरे

शनि की सुबह चाय की प्याली, उधर। ज़ूम पर होती दस्तक
और बुलाती दे आवाज़ें, लिस्ट पेंडिंग पड़े काम की
लोड बड़े दो लांडरी वाले, दूध,दही ,सब्ज़ी की शापिंग
और व्यवस्था भी करनी हफ़्ते भर के ताम झाम की

सोम, भौम, बुध, श्क्र, गुरु को पूरे दिन ही रहे व्यस्तता
बस रिपोर्ट, रेक्वीजीशन के, लाजिस्टिक्स के लगते डेरे

आवश्यक जो कार्य कर रहे, उस सूची में नाम हमारा
घर में बैठे कविता करना-सुनना, सब हो गया असम्भव
दो दिन मिलते शनि औ’ रवि का अपना हाल जान लेने को
उसमें भी यदि ज़ूम ​क​रे तो हम खुद लाक्डाउन होंगे तब

संडे को वेक्यूम समूचा , फिर मंडे का लंच बनाना
कविता ग़ज़लें पेट न भरती, बंद पड़ा आफिस का  कैफ़े 

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