हमने सुधा मानकर उसको बूँद बूँद स्वीकार किया है
इस पथ पर जब पाँव रखे थे हमें विदित था इन राहों पर
केवल इक विश्वास ह्रदय में ही होगा अपना सहयोगी
स्नेह और अपनत्व साथ तो दे देंगे उत्प्रेरक बन कर
लेकिन मंज़िल के प्रांगण में प्रस्तुति केवल अपनी होगी
दुर्गम पथ पर पग पग उगती झंझा की भरपूर चुनौती
को बाहैं फैला कर अपनी प्रतिपल अंगीकार किया है
हमने प्रण था किया पंथ में नित संघर्षरती रहने का
जब तक जय का घोष स्वयं ही आ निनाद पथ में करता हो
छाये हों अवसाद घनेरे पर निश्चय विचलित न होगा
बढे अंधेरी रातों में हम जब तक न सूरज उगता हो
अपने पग के छालों को ही बना अलक्तक रची अल्पना
जब जब राहों ने जीवन को काँटों का उपहार दिया है
निष्ठाये रही एकलव्यी जिस से पल भर भी डिगे नहीं
पल पल मिलती पीड़ाओं ने मन को दुर्बल होने न दिया
अपने प्रतिबिंबों में हमने अपने से चित्र तलाशे थे
मुश्किल के सजल क्षणों में भी जिन ने हताश होने न दिया
इस जीवन की लाक्षागृह सी जलती हुई विषमताओं में
तपती हुई अस्मिता को अब हमने नव विस्तार दिया है
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