वर्ष नया मंगलमय कहने


पा तेरा सान्निध्य रुत होती सुहागन

बादलों के पृष्ठ पर पिघले सितारे शब्द बन कर 
चांदनी की स्याही में ढल लिख रहे हैं नाम तेरा 
धुप की किरणें तेरी कुछ सुरभिमय सांसें उठाये 
खींचती हैं कूचियां बन कर क्षितिज पर नव सवेरा

प्राण सलिल पा तेरा सान्निध्य रुत होती सुहागन
ओर संध्या की गली सुरमाई, होती आसमानी

शोर में डूबी नगर की चार राहो का मिलन स्थल
मधुबनी होता तेरे बस नाम का ही स्पर्श पाकर
और ढलते हैं सभी स्वर गूँज में शहनाइयों की
जब छलकती है तेरी इस चुनरी की छाँह गागर

शुभ्रगाते देह तेरी से झरी आभाये लेकर
सज रही है ज्योत्सनाओं की छटा में रातरानी

कुम्भ में साहित्य के तो  रोज ही कविता नहाती
एक तेरे नाम की डुबकी महज होती फलित है
गीत औ नवगीत चाहे जोड़ ले कितना, घटा ले
व्यर्थ होता बिन तेरे इक स्पर्श के सारा गणित है 

रच रहा हो काव्य कितने भाष्य कितने ये समय पर 
बिन तेरे सान्निध्य के सब रह गए बन लंतरानी 

पत्रिका में  फेसबुक पर  व्व्हाट्सएप पर गीत गज़लें 
रोज ही बहते रहे हैं एक हो अविराम निर्झर  
नाम तेरे के बिना बधते नयन की डोर से कब  
व्यर्थ  हो  जाते  रहे है बस नदी की धार हो कर

साक्ष्य बन कर सामने इतिहास फिर से कह रहा है
बिन तेरे ही नाम के कब पूर्ण होती है कहानी

हम करते संवाद रह गए

पल तो रहे सफलताओ  ​के​दूर सदा ही इन राहो से
खड़े मोड़ पर आभासों से हम करते संवाद रह गए

झड़े उम्र की शाखाओं से एक एक कर सारे पत्ते
तय करते पाथेय सजे से नीड सांझ तक के, की दूरी
औ तलाशते हुए आस के पंछी इक सूने अम्बर में
रही रोकती परवाज़ो को जिनकी घिर कोई मज़बूरी

उभरा नहीं नजर के आगे आ कोईआकार  समूचा
परछाई की परछाई से करते वाद- विवाद रह गए

मिला नहीं विश्रांति मोड़ पर बादल का टूटा टुकड़ा भी
बहा ले गए साथ चले विपरीत दिशा में चंचल झोंके
बही चिलचिलाती किरणों के शर से सज्जित हो झंझाये
शस्त्र नहीं था कर में संभव हो न सका पल भर भी रोके

एक बार तो आकर रथ की वलगाये ले ले हाथो में
पार्थसारथी के द्वारे पर नित करते फ़रियाद रह गये

देते रहे निमंत्रण हमको मंज़िल के ऊंचे कंगूरे
हाथो में भी थमी हुई थी लंबी इक कमंद की डोरी
पर अशक्त कांधों की क्षमता आड़े आती रही हर घड़ी
रही ताकती नभ का चन्दा सूनी नजरे आस चकोरी

साँसों की सरगम तो आतुर रही सजाये गीत मधुर इक
आर्त स्वरों में राग रागिनी लेकिन करते नाद रह गए

सूर्य नूतन वर्ष का

सूर्य नूतन वर्ष का बस है गली को मोड़ पर ही
आओ अगवानी करे, ले पृष्ठ कोरे साथ मन के

वेदना के पल गुजरते वर्ष ने जितने दिए थे
हम उन्हें इतिहास की अलमारियों में बंद कर दे
नैन में अटकी हुई है बदलियां निचुड़ी हुई जो
अलगनी के छोर पर उनको उठाकर आज धर दे

अर्थहीना शबडी की अब तोड़ कर पारंपरिता
मन्त्र  रच ले कुछ नए आतिथ्यके लेशुभ्र मनके


स्वप्न टूटे आस बिखरी जो सहेजी है बरस भर
आज इसका आकलन हम एक पल को और कर ले
पंख बिन चाहा भरे भुजपाश में अम्बर समूचा
आज तो परवाज़ की क्षमताओ पर कुछ गौर कर ले

जांच ले हम पात्रता अपनी, कसौटी पर परख कर
ताकि अब बिखरें नहीं संवरें नयन जो स्वप्न बन के

कामना झरती रही बिन भावनाओं की छुअन के
और घिरता रह गया था बांह  में कोहरा घना हो
इस बरस हर शब्द गूंजे होंठ की चढ़ बांसुरी पर
ये सुनिश्चित कर रखे वह प्रीतिमय रस से सना हो

सूर्य नूतन वर्ष का जो ला रहा सन्देश पढ़ ले
और पल सुरभित करे हम वर्ष को मधुमास कर के

जीवन की विपदाएं ढूंढें

अच्छे है नवगीत गीत सब्
किन्तु आज मन कहता है सुन
नव विषयो को नए शब्द दे
और नई उपमाएं ढूंढें

दिशा पीर घन क्षितिज वेदना
पत्र लिए बिन चला डाकिया
खाली लिए पृष्ठ जीवन के
अवलंबों से परे हाशिया
कजरे सुरमे से आगे जाकर
दीपित संध्याये ढूंढें

विरह मिलन हो राजनीति
या भूख गगरीबी खोटे सिक
भ्रष्टाचार अभावो के पल
अफसरशाही चोर उचक्के
इनसे परे उपेक्षित हैं जो
जीवन की विपदाएं ढूंढें

मावस पूनम के आगे भी
जलती हैं लिख दे वे राते
और  धरा के मौसम वाले
विद्रोहों की भी बातें
सीमा की परिधि के बाहर
है कितनी सीमाएं ढूंढें

परछाईयाँ कब तक निहारें

फूल चरणों में चढ़ाते पूछता मन प्रश्न खुद से
ढह चुकी  इन मूर्तियों की आरती कब तक उतारें
 
याद, हमको था शिरा में घोल कर सौंपा गया था
ज़िन्दगी का ध्येय इक कर्तव्य है और दूसरा यह
जोड़ कर इनसे चलें हम साँस का हर सूत्र अपना
फिर असम्भव ज़िन्दगी में कुछ अपेक्षित जायेगा रह
 
आज यह इतिहास के भूले हुये इक पृष्ठ से हैं
कब तलक परतें जमीं हम 
​धूल ​
की इनसे बुहारें

 
​हैं बिछाते 
चादरें नित ज्ञान दर्शन प्रवचनों की
रोज नव गाथायें रचते जा रहे दुखभंजनों की
हो नहीं पाते तनिक परवर्तनों पर अवनिका रख
कह दिया जाता विधी है यह निखरते कुन्दनों की
 
उम्र बीती एक पूरी, आस में तपते निशा दिन
और पिघली धार में परछाईयाँ कब तक निहारें
 
रच दिये षड़यंत्र जीवन में नये 
​हर 
व्रत कथा ने
आस्था से हो परे
​,​
 प्रतिकूल हो 
​घिरती घटा 
ने
खींच कर रक्खे छलावे दूर तक बिखरे क्षि
​तिज 
पर
घोल कर के घंटियों के शोर को, आती हवा ने

लौटती
​ हैं अनसुनी, हर बार प्रतिध्वनियाँ गगन से
व्यर्थ फिर आवाज़ खोने के लिये कब तक पुकारें  ? ​

अब नहीं स्वीकार यह

अब नहीं स्वीकार यह संवेदनाएं यह दिलासे
मैं गया हूँ सीखः अपनी पीर पी कर मुस्कुराना

आंजुरि फैलाये याचक कल तलक तो था अपेक्षित
और हर इक द्वार से पाई उपेक्षाएं निरंतर
राह ने करते तिरस्कृत मार्ग में बाधाएं बोई
थे रहे आभास मंज़िल के कही पर दूर छिप कर

अब नहीं स्वीकार यह निष्ठाएं मुझको एकलवयी
मैं गया हूँ सीख धनु पर आप ही अब शर चढ़ाना

प्राप्ति के फल फुनगियों के छोर पर टिककर रहे थे
और बंध कर मुट्ठियों में रह गई थी उँगलियाँ भी
दोपहर का सूर्य तपता लक्ष्य को धुंधला किये था
हो न पाई थी सहायक। एक पल को बदलियां भी

अब नहीं स्वीकार यह अनुदान फल का शाख पर से
आ गया मुझको निशाना अब गुलेलों से लगाना

ज़िन्दगी देती नहीं अनुनय विनय से कुछ अपेक्षित
बात यह इतिहास ने हर बार दुहरा कर बताई
सिंधु से पथ का निवेदन, पंचग्रामी भाग केवल
प्रीत न होती बिना भय, कह गए तुलसी गुंसाई

​अब नहीं स्वीकार यह इतिहास का पुनरावलोकन

आ गया है चिह्न मुझको अब समय सिल पर लगाना

पैंतीसवां पड़ाव एक पथ पर

आज उगती हुई भोर ने देखकर
ओस में भीग दर्पण बनी पाँखुरी
मुस्कुराती हुई कल्पनाएं लिए
कामनाये सजा कर भरी आंजुरी 

फिर खुले पृष्ठ पैंतीस इतिहास के
फिर से जीवंत होनेे लगी वह घडो
गुनगुनाते हुए सांझ ने  जब दिशा
अपने सिन्दूर के रंग से थी भरी
देहरी छाँव ओढ़े हुए तरुवरी
आप ही आप रंगोलियों में सजी
और पुरबाइयाँ थी बनी बांसुरी
प्रीत की मदभरी रागिनी में बजी

आज फिर से जगीं वे ही अनुभूतियाँ
राह दो, ज़िन्दगी की परस्पर जुडी

नैन के व्योम में चित्र उभरे पुनः
यज्ञ में आहुति ले जगी थी अगन
मंत्र के साक्ष्य में स्वर संवरते हुए
गुनगुनाते हुए वेदवर्णित वचन
बात करती अबोले हुए मौन से
कंगनों से, रची हाथ की मेंहदियां
आतुरा सा अलक्तक रंगा पाँव में
आगतों की नयन में घिरी बदलियां

दृष्टि नजरें चुरा एक पल को मिली
दुसरे पल घुमा दृष्टियों को मुड़ी

आज अनुभूतियों की घनी झील से
सीपियों से निकल चंद मोती मिले
मुद्रिका में दिवस की जड़े नग बन
जब समन्वय के जुड़ने लगे सिलसिले
सोच की भिन्न पगडंडियां आप ही
जाने कैसे मिली एक ही पंथ में
एक अदृश्य डोर्रे रही बांधती
जन्म शत की डगर नित्य अनुबंध में

खोलने वीथियां अब नई व्योम में
भावना आज परवाज़ लेकर उडी

बादलों की कूचियों पर

पाँखुरी पर ओस ने जब से लिखा है नाम तेरा
रंग आ खुद ही संवरते बादलों की कूचियों पर

धुप ने अंगड़ाई लेकर नींद से जब आँख खोली
और देखा झील वाले आईने में बिम्ब अपना
तब छिटकते पाँखुरों से रंग जो देखे धनक के
सोच में थी जाग है या भोर का है शेष सपना

नाम की परछाइयाँ जो गिर रही शाखाओं पर जा
में
ह​दि​यों के रंग उससे भर गए है बूटियों पर


बादलों की कूचियों पर से फिसल कर चंद बूँदें
चल पड़ी थी दूब के कालीन पर करने कशीदा
रास्ते में एक तितली के परो पर रुक बताती
वे उसे श्रृंगार कर सजने सजाने का सलीका

नाम ने तेरे रंगी है प्रकृति कुछ इस तरह से
सिर्फ तेरा नाम मिलता, मौसमों की सूचियों पर

व्योम को कर कैनवस, की रंगपट्टो सी दिशाएं
फ्रेम में जड़ कर क्षितिज के, चित्र कुछ नूतन उकेरे
बादलों की कूचियों पर लग रहा उन्माद छाया
एक तेरा नाम लेकर रंग दिए संध्या सवेरे

नाम तेरा बह रहा है सरगमों की धार होकर
एकतारा बांसुरी पर, बीन पर, सारंगियों पर

चांदनी में अमावस नहाने लगी

आज तेरे नयन में चमकती हुई
प्रीत कुछ इस कदर झिलमिलाने लगी
दीप दीपावली के हजारों जले
चांदनी में अमावस नहाने लगी

मन से उठती हुइ भावना की लहर
गन्ध लेकर अचानक उमड़ने लगी​
फ़ूटने लग पड़े सैंकड़ों कुमकुमे
फ़ुलझड़ी हर तरफ़ जगमगाने लगी
पग से बिखरा अलक्तक बनी अल्पना
मेंहदियों  ने सजाये नये सांतिये
रोशनी सूर्य की बन के जगने लगे
सांझ की झील में टिमटिमाते दिये

आरती की धुनें सरगमें ले नई
प्रीत की रागिनी गुनगुनाने लगी

​शब्द शहदीले होंठों से फ़िसले हुये
फूल पूजा के बनते हुये सज गये
चितवनों से चले पुष्प शर पंथ से
द्वार तक वंदनी हार में ढल गए
बन सितारे गगन ओढ़नी पर जड़ी
पैंजनी की खनक इक थिरकते हुए
मावसी रात में चन्द्रमा बन गई
नाक की लॉग जैसे दमकते हुए

कार्तिकी पूर्णिमा दूर से देखकर
दृश्य ये, मन ही मन मुस्कुराने लगी

​पग जहां पर पडें, धूल में उग गए
दर्ज़नों फूल खुशबू लुटाते हुए
और कटिबन्ध की लड़कनो से जगे
सरगमी राग कुछ मुस्कुराते हुए
घाघरे की किनारी के प्रतिबिम्ब से
इंद्रधनु आ संवरने लगे राह में
कंगनों की खनक घोलने लग गई
एक फगुनाई मल्हार ला बांह में

एक अनुभूति आ कल्पना से परे
अपनी अभिव्यक्ति को कसमसाने लगी

प्राण दीप मेरा जलता है

हन निशा में तम की चाहे जितनी घनी घटाएं उमड़े
पथ को आलोकित करने को  प्राण दीप मेरा जलता है

पावस के अंधियारों ने कब अपनी हार कहो तो मानी
हर युग ने दुहराई ये ही घिसी पिटी सी एक कहानी
क्षणिक विजय के उन्मादों ने भ्रमित कर दिया है मानस को
पलक झुकाकर तनिक उठाने पर दिखती फिर से वीरानी


लेकिन अब ज्योतिर्मय नूतन परिवर्तन की अगन जगाने
निष्ठा मे विश्वास लिए यह प्राण दीप मेरा जलता है


खो्टे सिक्के सा लौटा है जितनी बार गया दुत्कारा
ओढ़े हुए दुशाला मोटी बेशर्मी की ,यह अँधियारा
इसीलिए अब छोड़ बौद्धता अपनानी चाणक्य नीतियां
उपक्रम कर समूल ही अबके जाए तम का शिविर उखाड़ा


छुपी पंथ से दूरशरण कुछ देती हुई कंदराएँ जो
उनमें  ज्योतिकलश छलकाने  प्राण दीप मे​रा जलता है


दीप पर्व इस बार नया इक ​संदेसा लेकर है आया
सीखा नहीं तनिक भी तुमने तम को जितना पाठ पढ़ाया
अब इस विषधर की फ़ुंकारों का मर्दन अनिवार्य हो गया
दीपक ने अंगड़ाई लेकर उजियारे का बिगुल बजाया

फ़ैली हुई हथेली अपनी में  सूरज की किरणें भर कर
तिमिरांचल की आहुति देने प्राण दीप मेरा जलता है

उजाले के दरीचे खुल रहे--दीपावली

शरद ऋतु रख रही​ पग षोडसी में
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

उतारा ताक से स्वेटर हवा ने
लगे खुलने रजाई के पुलंदे
सजी  छत आंगनों में अल्पनाएं
जहां  कल बैठते थे आ परिंदे
किया दीवार ने श्रृंगार अपने
नए से हो गए हैं द्वार, परदे
नए परिधान में सब आसमय है
श्री आ कोई वांछित आज वर दे

दिए सजने लगे बन कर कतारें
उजाले के दरीचे खुल रहे है

लगी सजने मिठाई थालियों में
बनी गुझिया पकौड़ी पापड़ी भी
प्लेटों में है चमचम, खीरमोहन
इमरती और संग में मनभरी भी
इकठ्र आज रिश्तेदार होकर
मनाने दीप का उत्सव मिले है
हुआ हर्षित मयूरा नाचता मन
अगिनती फूल आँगन में खिले है

श्री के साथ गणपति सामने है
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

पटाखे फुलझड़ी चलने लगे हैं
गगन में खींचती रेखा हवाई
गली घर द्वार आँगन बाखरें सब
दिए की ज्योति से हैं जगमगाई
मधुर शुभकामना सबके अधर पर
ग़ज़ल में ढल रही है गुनगुनाकर
प्रखरता सौंपता रवि आज अपनी
दिये की वर्तिका को मुस्कुराकर

धरा झूमी हुई मंगल मनाती
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

सिमट कर रातरानी की गली से
तुहिन पाथेय अपना है सजाता
अचानक याद आया गीत, बिसरा
मदिर स्वर एक झरना गुनगुनाता
बनाने लग गई प्राची  दिशा में
नई कुछ  बूटियां राँगोलियों की
हुई आतुर गगन को नापने को
सजी है पंक्तपाखी टोलियों की

क्षितिज करवट बदलने लग गया है
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

चली हैं पनघटों की और कलसी
बिखरते पैंजनी के स्वर हवा में
मचलती हैं तरंगे अब करेंगी
धनक के रंग से कुछ मीठी बातें
लगी श्रृंगार करने मेघपरियां
सुनहरी, ओढनी की कर किनारे
सजाने लग गई है पालकी को
लिवाय साथ रवि को जा कहारी 

नदी तट गूंजती है शंख की ध्वनि
उजाले ले दरीचे खुल रहे हैं 

हुआ है अवतरण सुबहो बनारस
महाकालेश्वरं में आरती का
जगी अंगड़ाइयाँ ले वर्तिकाये
मधुर स्वर मन्त्र के उच्चारती आ
सजी तन मन पखारे आंजुरि में
पिरोई पाँखुरी में आस्थाएं अर्चनाये
जगाने प्राण प्रतिमा में प्रतिष्ठित
चली गंगाजली अभिषेक करने

विभासी हो ललित गूंजे हवा में
उजाले के दरीचे खुल रहे हैं

इस दिवाली पे लौटे वही चार पल

दीप दीपावली के जले आज फिर
आज फिर गंध आई दबे पांव चल
मीठी बातों की जो उस हवा में घुली
जिसकी गलियों से हम दूर आये निकल

गेरुओं से छलकती हुई प्यालियाँ
और खड़िया लिए वे कटोरे कई
बूटियों में उमंगें जगात हुए
उंगलियां फर्श पर थी थिरकती हुई
खांड से जो बने वे खिलौने लिए
खील से थी लबालब भरी हठ रियां
दीप की वातियां सूत में कातती
अनवरत नाचती घूमती तकलियां

कितने वर्षों के इतिहास की तह चढ़ी
पर लगे बस अभी बीत गुजरा है कल

पन्नियों से सजी थैलियों में भरे
माहताबो की लड़ियाँ, नई चकारियां
फुलझड़ी और पटाखे कई भाँति क​
नभ को छूती हवाई बनी सुर्रियां
हर गली और दूकान सजती हुई
भीड़ तेरस को उमड़ी सराफा गली
और हलवाइयों की चली और से
छवियां मन में मचाती हुई खलबली

याद की बिजलियाँ कौंधती कह रही
उस गली में बिताए पुनः चार पल

आज इस गाँव में दीप दिखता नहीं
चित्र ही बस टंगे घर की दिवार पर
स्वस्ति के चिह्न भी बंधनों में बंधे
अल्पनाएं भी दिखती नहीं द्वार पर
कोई कंदील लटकी नहीं है कहीं
आता कोई पड़ौसी न मिलने यहां
फेसबुक और वाट्स एप सन्देश है
अर्थहीनता, बना कर खड़े पंक्तियाँ

एक अवलंब केवल सुधी का रहा
भाव में डूब जब भी हुआ मन विह्वल
राकेश खंडेलवाल


मैं प्रयत्न थोड़ा करता हूँ



दूर क्षितिज पर घिरे हुए अंधियारे की परते खुल जाए
युग के जलते हुए प्रश्न की गुत्थी को थोड़ा सुलझाये
सरगम की विस्तृत सीमा से पहले और बाद जो सुर है
बस ये कोशिश है हम उनके भी स्वर को थोड़ा सुन पाएं

इसीलिये मैं रहे अनछुए अब तक। कुछ ऐसे भावों को
अपने मुट्ठी भर शब्दों की करवट से जोड़ा करता हू

कितने है रहस्य जीवन की लंबी बिछी हुई राहों के
जिनको अनदेखा करते हम आगे आगे बढ़ते आये
किन पगचिन्हों के अनुगामी अनायास हम बन जाते है
और देखता कौन पंथ में छोड़ दिए जो हमने साये

इसीलिये मैं आज मोड़ पर जीवन के इस दो पल ठहरा
​अनबूझे ​कुछ प्रश्नों के अवगुंठन को तोड़ा करता हूँ 

मंत्रों के आकार और ध्वनि में उलझे आध्यात्मवाद का​
मापदंड क्या हो किसने यह किया यहाँ पर आ निष्पादित
अलग अलग जांचा करती है क्यों मूल्यों को एक क​सौटी
इस पर उठे प्रश्न ही क्योंकर, रह रह होते हैं प्रतिबाधित

इसीलिये मैं नियम कसौटी के फिर से मूल्यांकित करता
भटकी हुई सोच को देते सही दिशा मोड़ा करता हूँ​

एक शाख पर उगे हुये दो फूलों में क्यों मिले विविधता
एक लक्ष्य को पाती कैसे दो विपरीत दिशा की राहें
एकाकीपन बोया करता है कुछ और अधिक सन्नाटा
और अभीप्सित पाकर भी क्यों जलती रहती तृषित निगाहें

इसीलिये मैं उत्तर पाने की चेष्टा से पूर्व स्वयं को
इन सब के आधार समझने का प्रयत्न थोड़ा करता हूँ

अंधकार के क्षण जल जाते

जहां दीप की चर्चा से ही अंधकार के क्षण जल जाते
मैं अपनी गलियों में बिसरे वे स्वर्णिम पल बुला रहा हूँ

इंद्रधनुष की वंदंवारों पर उड़ती इठलाती गंधे
दादी नानी की गाथा में बचपन में आ सज जाती थी
और तिलिस्मी किसी कंदरा में छुप बैठी सोनपरी इक
अनायास ही परस दीप का पाकर सन्मुख आ जाती थी

आज समय के इस गमले में वे ही स्वर छूमंतर वाले
अंधियारे को दीप बना दें यही सोच कर उगा रहा हूँ 

पगडण्डी से चली टेसुओं की चौपाल तलक बारातें
और प्रतीक्षा के दीपक ले बैठी हुई सांझ से सांझी
दृष्टी मिलन होते दोनों का,अंधकार के क्षण जल जाते
बिखराती आलोक चहुंदिश द्युति
​ ​​हो​कर मधुर विभा सी


जीवन की पुस्तक के बिसरे इन प्रारंभिक अध्यायों को
कई दिनों से मैं रह रह कर दुहराने में लगा हुआ हू

आज झपटते है हर दिशि से तिमिर ओढ़ बदरंग कुहासे
राहों के मोड़ो पर आकर खड़ी अमावस देती पहरा
कोलतार के रंगों वाली उमड़ रही हैं उच्छल लहरें
और विरूपित ही दिखता है प्राची में किरणों का चेहरा

अंधकार के क्षण जल जाते,  हाथों में तीली आते ही
संशय में डूबे हर मन में, मैं निष्ठाएं जगा रहा हूँ 

हम बढ़ रहे सुनहरे कल की और


हम बढ़ रहे सुनहरे कल की और तुम्हारा है ये कहना
किंतू तुम्हारे मानचित्र में पंथ सभी  है बीते कल के

अरसा बीता भ्रामकता के रंग बिरंगे सपनो में खो
आश्वासन की डोरी के अनुगामी हो होकर के जीते ​
संध्या का कहना लायेगी रजनी स्वप्न सितारों वाले

आकर देती रही भोर पर, उगते दिन के पन्ने रीते

फ़ैली आंजुरि में रखती है लाकर हवा नही बादल को
एक आस अम्बर के आँगन से कोई तो गगरी छलके

प्राचीरों पर लगी फहरतीं हुई ध्वजा की परछाई में
रहे बदलते खंडित होती प्रतिमाओं के रह रह चेहरे
उड़ी पतंगे आश्वासन की तोड़ बंधी हाथों से डोरी
बही हवा की पगडंडी पर रही छोड़ती धब्बे गहरे

इन्द्रधनुष के जो धुन्धुआते चित्र दिखाते तुम रह रह कर
उनमे कोई नया नहीं है, बस लाये हो फ्रेम बदल के  

ग्रंथों में वर्णित स्वर्णिमता बतलाते तुम परे मोड़ के
भेजा तुमने उसे निमंत्रण , कल परसों में आ जायेगी
जिस सुबह के इन्तजार म उम्र गुजारा करी पीढियां
आज रात के ढलते ढलते यहां लौट कर आ जायेगी

साक्षी है इतिहास सदा ही, शायद तुम ही भूल गए हो
कोई लौट नहीं पाया जो गया कभी इस पथ पे चल के

होकर के अज्ञात रह गये

घटनाओं से संदर्भो का
हम करते अनुपात रह गए
असमंजस की बही हवा में
बनकर सूखे पात बाह गए

कारण ढूँढा किये अकारण
उगे दिवस में ढली निशा में
पल मेंे कितने पल  है बीते
शेष शेष क्या भाग गुणा में
अर्धव्यास के एक बिंदु पर
थे तलाशते किसी वृत्त को
रहे देखते रात उतैरती
चुपके से आकर संध्या में

उलझन भरे अधूरेपन के
होकर हम निष्णात रह गए

लिपट धुंध की परछाई में
चले अनावश्यक के पीछे
दृष्टि टिकाये कंगूरों पर
देखि नहीं घाटिया नीचे
बिम्ब देख कर ही प्रपात का
उल्टी कर दी कर की छागल
बिना फ्रेम के कैनवास पर
चित्र बनाये आँखे मीचे

स्वप्नदृगी हम, वर्तमान से
होकर के अज्ञात रह गये

रही मानसिकताएं बंदी
अपनी, अनजाने बंधन में
रह न सके स्वच्छन्द कभी भी
भावों तक के संप्रेषण में
कठपुतली हम, हमें नचाते
अनदेखे हाथों के धागे
बिम्बविहीना रहे आजतक
अपने जीवन के दर्पण में

बिछी बिसातों पर मोहरे से
बिना चले, खा मात रह गए

कभी चल दिए साथ

कभी चल दिए साथ पकड़ कर उंगली जो जीवन के पथ पर
वो कुछ ऐसे सपने थे  जो संवरे नहीं नयन में आकर

गति के अनुष्ठान से लेकर पथ पर बिखर रहे मीलो में
पाथेयों के उद्गम से ले बिछी नीड तक की झीलों में
अरुणाचल से आराम्भित हो किरण किरण के अस्ताचल तक
दोपहरी के प्रखर सूर्य 
सी , जली रात की कंदीलों में


परछाई बन कभी चल दिए साथ निरंतर जो घटनाक्रम
कोई ऐसा ना था
 आया हो जो कोई निमंत्रण पाकर


कभी तान बांसुरिया की तो कभी चुनी अलगोजे की धुन
कभी रागिनी थी सितार की, कभी लिया इकतारे को चुन
रहे खोजते इक सरगम को तार तार में संतूरों के
कैद किये थी पायल उसको अपने इक घुँघरू में 
​बुन  बुन ​


कभी चल दिए साथ फिसल कर साजों के तारों से जो सुर
उनमें कोई एक नहीं था, वाणी जो दुहराये गाकर

बचपन की गलियों में या फिर अल्हड़ता के नए मोड़ पर
यौवन के पथ पर बंधन के सभी दायरे बंधे तोड़ कर
रंगभूमि में दायित्वों की, हर निश्चय का साथ 
निभाते 
जीवन पथ पर साथ रहे है संकल्पों का शाल ओढ़कर


कभी चल दिए साथ थाम कर साँसो के धागे जो रिश्ते
संभव नहीं व्यक्त कर पाना उन्हें शब्द के 
वस्त्र उढ़ाकर 

बदले ना विधना का लेखा

रही कोशिशें असफल।बदले ना विधना का लेखा

नईै सुबह परिवर्तन अपने संभव है कल
लेकर आये
आस सजी थी संध्या से ही
छाई हुई तिमिर की बदली छँट जायेगी
उगती हुई
धूप की थिरकन छूते से ही

मगर भोर पर इतिहासों ने खींची लक्ष्मण रेखा


परिणति कब बदली है तपती हुई जेठिया
दोपहरी में
संचित रखे तुहिन कणो की
सदियों से दोहराती जाती रही व्यवस्था
कब संभव है
रहे पाहुनी चार घडी ही

इसी सत्य ने फिर से खुद को आईने में देखा


रहे उगाते अंगनाई के टूटे हुए कुम्भ गमलों में
ताजमहल नित
 सुबह शाम सपनो के
रहे ढूंढते घिर कर रहते हुए कुहासों की छाया में
इंद्रधनुष बन जाए
जिनमें रंग रहे  अपनों के

टूटे बिम्बो में निकालते रहे मीन और मेखा

किसो अधर पर नहीं

किसो अधर पर नहीं जड़ा पिघले सावन का चुम्बन
सूने पनघट पर क्या करती पायलिया की रुनझुन


एक बार फिर लौटी नजरे, खाली हाथ डगर से
दिन गुजरे बैठा न कोई पाखी आ कर छत पे
रोता रहा पपीहे का स्वर भटका हुआ हवा में
लौटा गया दिवस आशाएं तोड़ तोड़ संध्या  में


किसी अधर पर नहीं रुका पल को आकर भी स्पंदन
सूने पनघट पर क्या करती पायलिया की रुनझुन 


दिशाहीन भटके संदेशों के कपोत सब नभ में
 रहा बदलता एक प्रतीक्षा का पल भी परवत में
मन की सिकता बिछी रही बन नदियातट की रेती
जिस पर आकर बांसुरिया की धुन ना कोई लेटी


किसी अधर पर मढ़ा नहीं सांसों ने आ चन्दन वन
सूने पनघट पर क्या करती पायलिया की रुनझुन 


रही फडकती किसी परस को तरसी हुईभुजाये
थमी न पल भर रही दौड़ती 
नस ​नस में शम्पाये
सुलगा करी तले तरुवर के जन्मांतर की कसमें
विधना पर दोषारोपण ही रह पाया बस , बस में



किसी अधर  पर नहीं गिरी अमृत कलसी की छलकन
सूने पनघट को क्या कहती पायलिया की रुनझुन

चौराहों पर लिए प्रतीक्षा बीती सुबह शाम

जीवन के इस महानगर में
दोपहरी बीती दफ्तर म
चौराहों पर लिए प्रतीक्षा
बीती सुबह शाम

कहने को भी पल या दो पल
अपने नही मिले
बोते रहे फूल गमलों में
लेकिन नहीं खिले
करे नियंत्रित र
खेघड़ी की
दो सुइयां अविराम


यौवन चढ़े निशा पर लेकिन
सजे नहीं सपना
परछाई ने रह रह पूछा
है परिचय अपना
कोई 
मिलता नहीं राह में
​करने 
दुआ सलाम


प्रगति पंथ के मोड़ मोड़ पर
विस्तृत डायवर्जन
प्राप्ति और अभिलाषाओं के
मध्य ठनी अनबन
साँसों ने धड़कन ने माँगा
है जीने का दाम

कहना होगा तुम हो पत्थर

थी हमें पिलाई गई यहाँ घुट्टी में घोल कई बातें
जिनको दोहराते बीते दिन, बीती अब तक सारी रातें
इस जगती की हर हलचल का है एक नियंत्रक बस सत्वर
हर घटना का है आदि अंत बस एक उसी की मर्जी पर

पाले बस यही मान्यताएं नतमस्तक थे मंदिर जाकर
आराधे सुबहो शाम सदा प्रतिमा में ढले हुए पत्थर

गीता ने हमको बतलाया, वह ही फल का उत्तरदायी
कर्तव्य हमारे बस में है, परिणाम सुखद सब होता है
उसने संबोधित होने को, मध्यस्थ न आवश्यक कोई
जो भी उससे बातें करता, वो सारी बातें सुनता है

तो आज हजारो प्रश्न लिए आया हूँ द्वार तुम्हारे पर
यदि उत्तर नहीं मिले तो फिर, कहना होगा तुम हो पत्थर


तुमने जब सृष्टि रची थी तब क्या सोचा था बतलाओ तो
क्यों धर्म रचा जो आज हुआ मानवता का कट्टर दुश्मन
क्यों ऐसे बीज बनाये थे जो अंकुर हों जिस क्यारी में
उसक्यारी में ही आयातित करते है अनबन के मौसम


वसुधैवकुटुंबम शिलालेख जो बतलाती संस्कृतियोंका
उस एक सभ्यता को सचमुच कहना होगा अब तो​ पत्थर


जो स्वार्थ घृणा और अहाँकर की नींवों पर निर्मित होता
उस एक भवन की प्रतिमा में कब प्राण प्रतिष्ठितहोते हैं 
तुम इन प्रासादों के वासी,  जो चाकर चुने हुए तुमने
वे श्रद्धा और आस्था की बेशर्म तिजारत करते है



तुम निस्पृह होकर के विदेह हो चित्रलिखित बस खड़े हुए
तो मन क्यों माने ईश् तुम्हें, कहना होग हो पत्थर

एकाकियत

कैप्सूलों गोलियों की एक अलमारी

उम्र की इतनी घनी दूुश्वारियों में
आ बढ़ा
कितना अकेलापन
धुंध बन कर आँख में फिर से तिरा
बीते दिनों का
वो खिलंदड़पन
सांझ की बैसाखियों पर बोझ है भारी

स्वप्न जाकत ताक पर था टंग गया
ठुकरा निमंत्रण
लौट न आया
रह गया परछाइयों की भीड़ में
गुमनाम होकर
साथ का साया
रात गिनती गिनतियों को आज फिर हारी



जुड़ गया रिकलाइनर से और टीवी के
रिमोटों से
अटूटा एक अपनापन
बढ़ गई थी फोने के सरगम सुरों से
एक दिन जो
आज भी सुलझी नहीं अनबन
भोर संध्या रात पर एकाकीयत तारी

किसके किसके नाम



संदेशे हर रोज मिले है भोर दुपहरी शाम
लाता रहा रोज ही मौसम किसके किसके नाम

मन की शुष्क वाटिका में पर अब न फूल खिले
जितने भी सन्देश मिले पतझर के नाम मिले
एक कटोरी भरी धूप की देकर गई दुपहरी
बीन ले गई संध्या आकर् जब द्वारे पर उतरी

शेष रह गई चुटकी भर कर बस सिन्दूरी घाम
और रहे आते सन्देशे जाने किसके नाम​

कटते रहे दिवस जीवन के बन कर के अभिशाप
सपनों की परछाईं की भी बची नहीं कुछ आस
रहे गूँजते सांसों में बस सन्नाटे के गीत
एकाकीपन रहा जोड़ता मन से अपनी प्रीत

एक कील पर अटक गये सब दिन के प्रहर तमाम
और पातियाँ थी मौसम की किसके किसके नाम

तिरते रहे हवाओं में टूटी शपथों के बोल
बिकी भावना  बाज़ारोा में बस कौड़ी के मोल
नयनो की सीपी पल पल पर स्वाति बूँद को तरसी
फिर से घिरी घटा अंगनाई से गुजरी बि​न बरसी

विरही  मन के मेघदूत को मिला न पी का गाँव
थका  खोजते  लिखे मिले थे और किसी के नाम​

वे सारे सन्देश जिन्हें तुम लिख न सके

वे सारे सन्देश जिन्हें तुम लिख न सके व्यस्तताओं में​
आज महकती पुरबाई ने वे सब मुझको सुना दिए हैं

मुझे विदित है मन के आँगन में होती भावो की हलचल
और चाहना होगी लिख दो मुझको अपने मन की बाते
लेकिन उलझे हुए समय की पल पल पर बढ़ती मांगो में
जाता होगा दिन चुटकी म बीती होंगी पल में रातें

उगती हुई भोर की किरणों ने पाखी के पर रंग करके
वे सारे सन्देश स्वर्ण में लिख कर जैसे सजा दिए हैं

शब्द कहाँ आवश्यक होते मन की बातें बतलाने को
​औरकहाँ सरगम के सुर भी व्यक्त कर सके इन्हें कदाचित
लेकिन नयनों की चितवन जब होती है आतुर कहने को
निमिष मात्र में हो जाते हैं अनगिन महाग्रंथ संप्रेषित

बोझिल पलकों से छितराती हुई सांझ सी  सुरमाई ने
नभ के कैनवास को रंग कर वे सब मुझकोदिखा दिए है

वैसे ही सन्देश लिखे थे जो रति ने अनंग को इक दिन
और शची ने जिनसे सुरभित करी पुरंदर की अंगनाई
दमयंती के और लवंगी के नल जगन्नाथ  तक पहुंचे
जिनसे बाजीराव पेशवा के मन में गूंजी शहनाई 

कलासाधिके! आज हिना के और अलक्तक के रंगों ने

अनचीन्हे सन्देश सभी वे चित्रित कर के बता दिए हैं

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...