परछाईयाँ कब तक निहारें

फूल चरणों में चढ़ाते पूछता मन प्रश्न खुद से
ढह चुकी  इन मूर्तियों की आरती कब तक उतारें
 
याद, हमको था शिरा में घोल कर सौंपा गया था
ज़िन्दगी का ध्येय इक कर्तव्य है और दूसरा यह
जोड़ कर इनसे चलें हम साँस का हर सूत्र अपना
फिर असम्भव ज़िन्दगी में कुछ अपेक्षित जायेगा रह
 
आज यह इतिहास के भूले हुये इक पृष्ठ से हैं
कब तलक परतें जमीं हम 
​धूल ​
की इनसे बुहारें

 
​हैं बिछाते 
चादरें नित ज्ञान दर्शन प्रवचनों की
रोज नव गाथायें रचते जा रहे दुखभंजनों की
हो नहीं पाते तनिक परवर्तनों पर अवनिका रख
कह दिया जाता विधी है यह निखरते कुन्दनों की
 
उम्र बीती एक पूरी, आस में तपते निशा दिन
और पिघली धार में परछाईयाँ कब तक निहारें
 
रच दिये षड़यंत्र जीवन में नये 
​हर 
व्रत कथा ने
आस्था से हो परे
​,​
 प्रतिकूल हो 
​घिरती घटा 
ने
खींच कर रक्खे छलावे दूर तक बिखरे क्षि
​तिज 
पर
घोल कर के घंटियों के शोर को, आती हवा ने

लौटती
​ हैं अनसुनी, हर बार प्रतिध्वनियाँ गगन से
व्यर्थ फिर आवाज़ खोने के लिये कब तक पुकारें  ? ​

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