मेघों के कन्धों पर

कालिदास की अमर  कल्पना​
को फिर से दोहराया मैंने
मेघों के कांधों पर रखकर
यह सन्देश पठाया मैने

कितनी बार शिकायत के स्वर
मेरे कानों से टकराये
कितने बीत गये दिन, कोई
तुम सन्देशा भेज न पाये
भेजे तो थे सन्देशे पर
रूठा मौसम का हरकारा
इसीलिये तो सन्देसों को
मिला नहीं था द्वार तुम्हारा

मौसम  की हठधरमी वाली
गुत्थी को सुलझाया मैने
मेघों के कन्धों पर रखकर
यह सन्देश पठाया मैने

श्याम घटाओं से लिख कर के
अम्बर के नीले कागज़ पर
रिमझिम पायल की रुनझुन की
सरगम वाली मुहर लगाकर
सावन की मदमाती ऋतु से
कुछ नूतन सम्बन्ध बनाये
ताकिं कोई भी झोंका फिर से
इनको पथ से भटका पाये

अनुनय और विनय कर करके
मौसम को समझाया मैंने
मेघों के कन्धों पर रखकर
यह सन्देश पठाया मैंने

​जितने भाव दामिनी द्युति से  
कौंधे मन की अँगनाई में
उन सबको सज्जित कर भेजा 
है बरखा की शहनाई में​

दिया की लहरों पर खिलते
बून्दों के कोमल पुष्पों से
कर श्रुन्गार, सजाया भेजा
सन्देशा मैने गन्धों से

डूब प्रेम में उसे सुनाये
मौसम को उकसाया मैने
मेघों के कंधों पर रख कर
यह सन्देश पठाया मैने

भर लें होठों से झरी चांदनी

मन के पन्नो पर अंकित है जितने भी स्मृति लेख आज, कल
सम्भव है उनको धो डालें उगे सूर्य की प्रखर रश्मियां
और पास में रह जाए बस धुले हुए बादल के टुकड़े
जिन पर गिरे दामिनी आकर​ और रचे कुछ नई पंक्तियाँ

तो फिर क्यों  न आज बैठ कर साथ बिताएँ हम कुछ घड़ियां
और सांझ के प्याले में भर लें होठों से झरी चांदनी

शेष रहा संचय में कितना, कटी उमर ने दिन दिन जोड़ा
वर्तमान ठुकराया, जीते भग्नावशेष विगत के लेकर
या आगत के दिवास्वप्न के सायों को बांहो में जकड़े
और भुलाकर आज दे रहा था जो अमृत आंजु​रि भर कर


तो फिर क्यों न आज, बंद कर हर इक खिड़की के पल्ले को
बैठे पास और सुन ले ​जो सरगम छेड़े मधुर रागिनी  


मुड़ कर पीछे छूट गए पदचिह्न देखने से क्या हासिल
यौवन की वयःसंधि तलक ही मानचित्र बस राह दिखाते
चौराहे पर पहुँच किया जाता जो निर्णय अपना होता
चुननी होती राह स्वयं ही जिस पर पग फिर चलते जाते

तो फिर क्यों न आज चुने हम उन गलियारों की राहों को
जहां ज़िन्दगी नहीं नियंत्रित करती कोई समय सारिणी


कटी पतंगों की डोरी में सादा पन क्या और मांझा क्या
वापिस नहीं जोड़ती उन को थमी हुई चरखी हाथों में
थापों में हो चुकी खर्च धड़कन प्राणों की वंसी के संग
निधि बन कर फिर शेष कहाँ रह पाती है संचित साँसों में

तो फिर क्यों न आज, आज के साथ गले मिल गा लें जी लें
ताकि न कल, कल की गोखो से पड़े आज की धूल ताकनी

केवल मीत तुम्हीं हो कारण

वीणा की झंकृत  सरगम ने
सुना कंठ स्वर मीत तुम्हारा
कहा आठवें सुर की रचना
का बस एक तुम्ही हो कारण

सारंगी ने जो सितार के
तारों को झंकार बजाया
बांसुरिया ने अलगोजे की
देहरी पर जा जिसको गाया
इकतारे में जागी लहरी
रह रह जिसे पुकारा करती
पवन झकोरे ने बिन बोले
जिसको संध्या भोर सुनाया

वह स्वर जाग्रत तुमसे ही तो
हुआ गूँजती प्रतिध्वनियों में
और जिसे दोहराते आये
दरबारों के  गायक, चारण

जागी हुई भोर में किरणें
जो प्राची को रही सुनाती
गौरेय्या के चितकबरे पंखों
पर जिसे धूप लिख जाती
स्तुतियों से हो परे, मंत्र की
ध्वनियों की सीमा से आगे
जिसे व्योम में ढूँढा करती
यज्ञ-धूम्र रेखा लहराती

परे अधर के स्पर्शों के जो
व्यक्त हुआ नयनों के स्वर में
वह सुर जिसका सकल विश्व में
मिलता कोई नहीं उदाहरण

आदि अनादि अक्षरों की धुन
है इक जिस सुर पर आधारित
भंवरों का गुंजन, लहरों का
कम्पन जिससे है अनुशासित
स्वर के आरोहों की सीमा 
से भी जो हो रहा अकल्पित
राग-रागिनी के गतियों के
नियम हुये जिससे प्रतिपादित

करते सदा तपस्या जिसके लिये
अधर कर लें उच्चारण
उस अष्टम सुर की रचना का
केवल मीत तुम्हीं हो कारण

पूरी कविता में कुछ अक्षर

लिखे रोज ही गीत नए, कुछ द्विपदियां कुछ लिखता मुक्तक
 लेकिन लगता  छूट  गये हैं  पूरी कविता  में कुछ अक्षर 

शब्दों की  संरचनाएं   तो लगती रही  सदा ही पूरी 
और मध्य में भावों के भी सम्प्रेषण से रही न दूरी 
मात्राओं  ने योग पूर्ण दे, शब्दों  का आकार संवारा 
फिर भी लगता आड़े आई कहीं किसी के कुछ मज़बूरी 

लय ने साथ निभाया पूरा, पंक्ति पंक्ति के संग संग चलकर 
फिर भी लगता  छूट  गये हैं  पूरी कविता  में कुछ अक्षर 

आंसू, पीर, विरह की घड़ियाँ , आलिंगन को तरसी बाँहें 
लिए प्रतीक्षा बिछी हुई पगडण्डी पर जल रही निगाहें 
पाखी की परवाजों के बिन, नीरवता में डूबा अम्बर 
अपना पता पूछती पथ में, भटक रही जीवन की राहें 

बनता रहा कथाएं इनकी, अहसासों के रंग में रंग कर
लेकिन फिर भी क्यों लगता है, हर कविता में छूटे अक्षर 

शायद अभी समझ ना आये, अर्थ मुझे अक्षर अक्षर के 
और शब्द ने भेद ना खोले, बदले हुए तनिक तेवर के 
इसीलिये हर बार अधूरे रहे गीत कवितायें मेरी 
उंगली पकड़ छन्द कोई भी चला ना साथ मुझे लेकर के 

नई भोर आ नित देती है, संकल्पों की आंजुरी भरकर 
फिर भी लगता  छूट  गये हैं  पूरी कविता  में कुछ अक्षर 

रतजगे पर सभी याद आते रहे

कोई सन्दर्भ तो था नहीं जोड़ता, रतजगे पर सभी याद आते रहे ​

नैन के गांव से नींद को ले गई रात जब भी उतर आई अंगनाई में
चिह्न हम परिचयों के रहे ढूँढते थरथराती हुई एक परछाईं में
दृष्टि के व्योम पर आ के उभरे थे जो, थे अधूरे सभी बिम्ब आकार के
भोर आई बुहारी लगा ले गई बान्ध प्राची की चूनरिया अरुणाई में

राग तो रागिनी भाँपते रह गये और पाखी हँसे चहचहाते रहे

अधखुले नैन की खिड़कियों पे खड़ी थी थिरकती रही धूप की इक किरण
एक झोंका हवा का जगाता रहा धमनियों मे पुनः  एक बासी थकन
राह पाथेय पूरा चुरा ले गई पांव चुन न सके थे दिशाएं अभी
और फिर से धधक कर भड़कने लगी साँझ जो सो गई थी हदय की अगन 

खूंटियों से बंधे एक ही वृत्त मे हम सुबह शाम चक्कर लगाते रहे 

यों लगा कोई अवाज है दे रहा किंतु पगडंडियां शेष सुनी रही
मंत्र स्वर न मिले जो जगाते इसे सोई मन में रमी एक  धूनी रही
याद के पृष्ठ जितने खुले सामने बिन इबारत के कोरे के कोरे मिले
एक पागल प्रतीक्षा उबासी लिए कोई आधार बिन होती दूनी रही


उम्र की इस बही में जुड़ा कुछ नहीं पल गुजरते हुए बस घटाते रहे

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...