कल संध्या जब पंडितजी ने अञ्जुरी में गंगाजल डाला
सच बतलाना उस पल मन में कितने दीप जले सुधियों के
सम्भव है लहराये होगे पलको के पर्दे पर कितने
चित्र एक अलसाई संध्या के जो कैनवास पर उभरे
और कसमसाये होंगे वे हिना रंगी उंगली के बूटे
जो उस पल पल्लू की गुत्थी के व्यूहों में जा थे ठहरे
और गुदगुदाई होंगी वे चुहलें जो की थी सखियों ने
सच बतलाना उस पल मन मे कितने दीप जले सुधियों के
यज्ञ कुंड की अग्नि शिखा के साथ साथ नर्तित होते वे
सपने जो थे परे कल्पना की सीमा के, उससे पहले
स्पर्श अजनबी सा आहुति के लिए थाम कर उँगलियों को
तारतम्य में रहा बांधता असमंजस के सब पल फैले
निश्चित मुझको खुलते होंगे कोष तुम्हारी कुछ स्मृतियों के
सच बतलाना उस पल मन मे कितने दीप जले सुधियों के
मंत्रपूरिता जल से भीगी हुई हथेली सिहरी थी जब
कमल पखुरियों ने खींची थी रेखाएं नूतन सपनों की
नयनो ने मद भरे पलो के आगत का आजा था काजल
सुरभि संजोई सौगंधों ने अधरों पर थिरके वचनों की
नये पंथ पर पगतालियो को जब सहलाया था कलियों ने
सच बतलाना उस पल मन में कितने दीप जले सुधियों के