शैल्फ में ही रखी पुस्तकें रह गई, उंगलियां छू के अब पृष्ठ खुलते नहीं
आज करने शिकायत लगी है हवा, फूल सूखे किताबों में मिलते नहीं
वे ज़माने हुए अजनबी आज जब, साँझ तन्हा सितारों से बातें करे
इत्र में भीगे रूमाल से गंध उड़ , याद की वीथियों में निरंतर झरे
दॄष्टि की कूचियों से नयन कैनवस पर उकेरे कोई चित्र आकर नया
मौन की स्याहियाँ ले कलम पगनखी, भूमि पर अपने हस्ताक्षरों को करे
ढूँढती है नजर भोर से सांझ तक, कोई चूनर कही भी लहरती नहीं
ना ही शाने से रह रह फ़िसलते हुये, उंगलियों पे वे पल्लू लिपटते नहीं
कुन्तलों की रहा अलगनी पे टँगा फूल मुस्का रहा था गई शाम से
मोगरे का महकता हुआ बांकपन भेजता था निमंत्रण कोई नाम ले
कंगनों में उलझती रही वेणियां आज की है नहीं, बात कल की रही
लग रहे चित्र सार महज अजनबी, दूर इतने हुये याद के गांव से
तोड़ कर रख लिए एक गुलदान में, मेज की शोभा चाहे बने चार दिन
कल के टूटे हुए फूल वासी हुए, देव के शीश पर जाके सजते नहीं
दॄष्टि उठ कर झुके फिर से गिर कर उठे और कहती रहे शब्द बिन बात को
देह के नभ पे बिखरे हुए हों चिकुर, नित्य लज्जित करें मावसी रात को
कितनी नदियों के उठ कर चले हों भंवर, चाह लेकर समाहित हों त्रिवली में आ
गंध पूरबाइयों से झरे आतुरा थामने के लिए संदली हाथ को
चित्र नयनों के ये है दिवास्वप्न जो भोर आने तलक
तो
ठहरते नही
कल्पना के वि
हग
फड़फड़ाते हुए आज के
व्योम पर
आ विचरते नहीं
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