अनायास ही गीत बुन गये


मैने चाहा नहीं लिखूं मैं कभी गज़ल या कविता कोई
शब्द स्वयं ही मुझ तक आये, अनायास ही गीत बुन गये

मैं अनजान काव्य के नियमों से, छन्दों की परिभाषा से
बहर काफ़िये औ रदीफ़ की मेरे शब्द कोश से दूरी
नहीं व्याकरण की गलियों का पता मिला मुझको नक्शे मे
 दोहे,चौपाइ ​कवित्त से, मिली नहीं मुझको मंजूरी

फिर भी भाव भटकते आय्र अनजाने मेरी देहरी पर
और सफ़र में पग धरने को मेरा आकर साथ चुन गये

लय गति और मात्राओं की गिनती मुझको तनिक ना आई
छन्द भेद की सारिणियों का मुझको कोई ज्ञान नहीं है
कहां अन्तरा रुकता, होती कहाँ वाक्य की पुनरावृत्तियां
इनका भेद किस तरह जानूँ, ये मुझको अनुमान नहीं है

 जितनी बार कंठ की खिड़की से बाहर ​मेरे स्वर झांके
सरगम ने चूमा फ़िर लय के साथ सजा कत उन्हे सुन गये

मन अम्बर में भाव विचरते रहते बिना किसी अंकुश में
बांधा करती है शब्दों की डोरी कोई कलाकार की
मेरी झोली रही कृपण ही शब्दों से भी भावों से भी
और कभी संप्रेषणता सेहो न सकासाक्षात्कार भी

यों बस हुआ शब्द जितने भी चढ़े भाव के करघे पर आ
थे चाहे अनगढ़ लेकिन सब किसी छन्द की राह धुन गये

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