एक ज्योति अंगड़ाई ले
पट से छनती पुखराज किरण सी
नीचे उतरी कदम बढ़ाते
तिमिरांचल सब, हवा हो गया
घिरा धुँध का सघन क़ुहासा
एक निमिष में काट दिया अपनी किरणों से
जले सहज दीपक हज़ार फिर
भूतल पर पग पग पड़ते उसके चरणों से
हल्का हल्का सुरमायापन
शेष रहा जो दिशा पश्चिमी
क्षण भर में ही पीत और कुछ जवा हो गया
खुले दिशाओं के वातायन
धीरे धीरे अगवानी करते प्रकाश की
बही हवाओं की झालर ने
झोली भर भर के उँडेल दी फिर उजास की
ठहरी हुई झील के जल में
मुँह को धोकर, अलसाया सा
नीला अम्बर, एक बार फिर नवा हो गया
जाग गई आशा अभिलाषा
इक दूजे का हाथ थाम कार साथ साथ ही
दीपक राग छिड़ा आँगन में
दीवारों पर अलगनियों पर बिना साज ही
कल तक था छाया सन्नाटा
बूँद बूँद कर जमा हुआ जो
प्रतिध्वनियाँ के स्वर से गूँजित रवा हो गया