वे सब पत्र जिन्हें तुम अब तक
लिख न सके व्यस्तताओं में
मैंने वे संदेश पढ़ लिए
अब कुछ भी अव्यक्त नहीं है
अरे सुमिखि तुमने क्या सोचा
मैं न समझता मन की भाषा
कालिन्दी के तट आ रहता
क्या बाँसुरिया का स्वर प्यासा
बिन पैंजनिया के खनके ही
देख समझ ली पग की थिरकन
ज्ञात मुझे है आदि अंत सब
पलती जो मन में अभिलाषा
कहाँ रहे आवश्यक मेरे
और तुम्हारे मध्य शब्द कुछ
मन से मन का सम्प्रेषण तो
पत्रों का अभ्यस्त नहीं है
तुमने उस दिन मणकामेश्वर
के आँगन से पुष्प उठा कर
अपन जूड़े में टंकवाया
मेरे हाथों से सकुचाकर
उस पल में कुंतल की सिहरन
से उँगलियाँ तरंगित होकर
समझ गई वो भाव, तुम्हारे
मन में जो उस पल था आया
सौगंधों की देख रेख में
जो सम्बंध जुड़े थे अपने
अब उनकी अटूटताओं पर
क्योंकर मन आश्वस्त नहीं है
शतरूपे ! हमने रोपे हैं
तुलसी के विरवे आँगन में
उनको बढ़ना है अम्बर तक
जन्म जन्म के अनुशासन में
क्षणिक किसी झंझा के पल की
क्या बिसात विचलित कर पाए
एक दूसरे के साधक हम
लीन हुये हैं आराधन में
अनुबंधों के राजमार्ग पर
संदेशों की चाहत कैसे
शाश्वतता की अंगनाइ में
कुछ भी तो संशप्त नहीं है
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