पुरखों के देवालय में

 दुविधाओं में घिरा हुआ मन चाहे  वहीं लौटना फिर फिर

जहाँ शांति मिलती आइ है उस पुरखों के देवालय में 


बदले हुए समय की गतियाँ ,बदलें  नित्य प्राथमिकताएँ

पंथ स्वयं ही कदम कदम पर अवरोधों के फ़न फैलाए

मंज़िल के मोड़ों से पहले दिशा बदलती रही दिशा भी

भटकावों के चक्रव्यूह का बिंदु कौन गंतव्य बनाएँ


ऊहापोहों में जकड़ा हर निश्चय हुआ अनिश्चय चाहे

निर्देशन जो जीवन दे दे सच को जीने के आशय में


रहे उगाते नभ की अंगनाई में सूरज चाँद सितारे 

पुष्प पाटलों से सज्जित कर रखे सदा ही देहरी द्वारे 

जो था रहा कल्पनाओं के परे  उसी को वर्त्तमान कह

अपने को अपने ही भ्रम में उलझाते थे साँझ सकारे 


असमंजस में घिरे हुए हम कोशिश में है भूले अपनी

भूले, हर ढलती संध्या को जाकर के इक मदिरालय में 


नित्य छला करते हम अपने स्वयं प्रतिष्ठित विश्वासों को 

दिवा स्वप्न से कर देते हैं अपने संचित अहसासों को 

बसंती मनुहारों को हम ओढ़ा कर पतझर की चूनर

मन के स्पंदन में बोते  हैं टूट टूट बिखरी  साँसों को 


फिर से जीवन जीने का क्रम समझ सकें हम, इसीलिए ही

उगी भोर के साथ निकल कर जाते है फिर विद्यालय में 



21 November 2020



समय की तीव्र गति में चन्द पल वे रह गये थम कर
सिमट कर आये थे तुम जिस घड़ी भुजपाश में मेरे
 
बजे जब वायलिन कोई नदी के मौन से तट पर
सुरों की सरगमों के साथ लहरें नृत्य करती हौं
बुढ़ाई सांझ की धुंधला गई सी एनकों पर से
लड़ी सी जुगनुओं की यों लगे बुझती दमकती है
 
तुम्हारा नाम ही बस तैरता है वाटिकाओं में
कहीं पर दूर लगता बांसुरी धुन कोई है टेरे
 
लिखे हों श्याम पृष्ठों पर गगन के दूधिया अक्षर
उन्हीं में हैं अनुस्युत पत्र जो तुम लिख नहीं पाये
परस ने ओस के छेड़ी जो सिहरन पुष्प पाटल पर
उसी में गूँजते हैं गीत  हमने साथ जो गाये
 
धन्क के रंग में अंकित सपन समवेत नयनों के
हवा की गंध को रहते हमारे साये ही घेरे


शरद योवन की सीढ़ी पर प्रथम पग रख रहा उस पल
पिघल करचाँदनी टपकी निशा की शुभ्र चूनर से
स्वयं आकर टंके थे फूल नभ के ओढ़नी में आ
चमक  चंदा चुराता था तुम्हारे कर्ण झूमर से

हुआ है पंथ जो यह उननचालिस मीलों का
मेरी सुधियों में लेते हैं वही पगचिह्न। बस फेरे 

दिवाली २०२०

 


एक अदेखे भय से जकड़ी हुई गली से पगडंडी 
हर चौराहे पर हर दिशि में लटकी हुई लाल झंडी 
पग झिझक करते हैं करने पार द्वार को देहरी को 
होता है प्रतीत मोड़ों के पार खड़ी आकर चण्डी 
बीते हुए बरस आँखों में आने दूभर होते हैं 
आँखो पर दस्तक देते हैं सपने बीती चुके कल के 
“दीवाली पर जगमग जगमग जब सारे घर होते थे 

रही थरथराती दीपों में प्रज्ज्वलित हुई वर्तिकाएँ
क्या जाने किस खुली डगर से आएँ उमड़ी झंझाएँ
खील बताशे खाँड़ खिलौने बाज़ारों में नहीं दिखे
हलवाई की दूक़ानों पर गिफ़्ट बाकस भी नहीं चिने
होंठों तक आते आते शुभ के स्वर पत्थर होते हैं 
गल्प समझते हैं बच्चे भी सिमट रह गए कैमरों में
दीवाली पर जगमग जगमग जब सारे घर होते थे 

बुझी हुई आशाओं के सारे ही स्पंदन रुके लगे 
लेकिन फिर भी मन की अंगनाएँ में। इक विश्वास जगे
तिमिर हटाने को काफ़ी है एक दीप की जाली शिखा
एक किरण से दीपित होती है कोहरे में घिरी दिशा
 यही आस्था लिए आज हम गति को तत्पर होते हैं
खींचें स्याह कैनवस पर हम चित्र आज वे बहुरंगी
दीवाली पर जगमग जगमग जब सारे घर होते हैं 

हुई थी बात जब तुम से


हुई थी बात जब तुम से हुई ऐसी कई बातें 
अभी भी याद हैं मुझको वे संध्या में घिरी रातें

हवा के एक झोंके ने छुए कुंतल तुम्हारे थे 
उतर कर आ गए नीचे क्षितिज पर से सितारे थे 
विभा की ओढ़नी थामे मचलती थी गगन गंगा 
अधर के शब्द भावों में नयन ने तब उचारे थे 

सुधी के पाटलों पर हैं  वही अंकित मुलाक़ातें 
हुई थी बात जब तुम से हुई अक्सर नई बातें

सिमट आया निकट आकाश का नीलभ आमंत्रण
खिले मधुमास  में सहसा हुआ अनजान परिवर्तन
अकेलापन चला लेकर उसी नादिया किनारे पर 
जहाँ हमने किया था प्रीति का अनमोल गठबंधन 

मधुर स्मृति की निधि हैं वे मिली उस रोज़ सौग़ातें 
हुई थी बात जब तुमसे हुई थी ना नई बातें 

अभावों के क्षणों में क़ैद हैं हम आज अर्थों बिन
बने नयनों के सपने हैं वही खर्चे हुए पल छिन
हुए हम आज यायावर उमड़ती धुँध के सहचर 
मगर जीते हैं अब भी वे कटे थे साथ अपने दिन 

सजी हैं आज उन बातों के फूलों की ही बारातें 
हुई थी जब कभी तुमसे, हुई थी बस वही बातें 


नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...