दुविधाओं में घिरा हुआ मन चाहे वहीं लौटना फिर फिर
जहाँ शांति मिलती आइ है उस पुरखों के देवालय में
बदले हुए समय की गतियाँ ,बदलें नित्य प्राथमिकताएँ
पंथ स्वयं ही कदम कदम पर अवरोधों के फ़न फैलाए
मंज़िल के मोड़ों से पहले दिशा बदलती रही दिशा भी
भटकावों के चक्रव्यूह का बिंदु कौन गंतव्य बनाएँ
ऊहापोहों में जकड़ा हर निश्चय हुआ अनिश्चय चाहे
निर्देशन जो जीवन दे दे सच को जीने के आशय में
रहे उगाते नभ की अंगनाई में सूरज चाँद सितारे
पुष्प पाटलों से सज्जित कर रखे सदा ही देहरी द्वारे
जो था रहा कल्पनाओं के परे उसी को वर्त्तमान कह
अपने को अपने ही भ्रम में उलझाते थे साँझ सकारे
असमंजस में घिरे हुए हम कोशिश में है भूले अपनी
भूले, हर ढलती संध्या को जाकर के इक मदिरालय में
नित्य छला करते हम अपने स्वयं प्रतिष्ठित विश्वासों को
दिवा स्वप्न से कर देते हैं अपने संचित अहसासों को
बसंती मनुहारों को हम ओढ़ा कर पतझर की चूनर
मन के स्पंदन में बोते हैं टूट टूट बिखरी साँसों को
फिर से जीवन जीने का क्रम समझ सकें हम, इसीलिए ही
उगी भोर के साथ निकल कर जाते है फिर विद्यालय में
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