अक्षत चन्दन धूप जलाकर, किसे पूजता है अनुरागी
हर सिन्दूर पुते पत्थर में प्राण न होते कभी प्रतिष्ठित
अपनी जगा आस्था तूने जिस मंदिर के द्वार बुहारे
सीढ़ी सीढ़ी से कंकर चुन पांखुरियों से राह सजाई
कलश आस्थाओं के भर कर सींची थी जिस की फुलवारी
संध्या में अपराह्न भोर में स्तुतियाँ और आरतियां गाई
उस मंदिर की खंडित प्रतिमा, व्यर्थ चढ़ाता रहा सुमन तू
बधिर मूर्तियों पर कब होते स्वर कंठों के जाकर गुंजित
जो मूरत आधार शिला को स्वयं ढहाती कब पूजती है
उसकी नियति नहीं बन पाए वह आराध्य किसी साधक का
टूट चुके गुम्बद के साये से निहारता सूने पथ को
शायद इधर कोई आ जाए अपने पथ से भूला भटका
लेकिन मुरझाये फूलों को चुनता नहीं कोई पूजन को
अभिलाषाएं बन मरीचिका होती रहें नयन में अंकित
सिंहासन पर बैठ सोचता जो हर कोई उसको पूजे
उसे जगह कब मिल पाती हैं कल परसों के इतिहासों में
उसको तो नकार देते हैं याचक के फैले कासे भी
अनुनय कितना करे, नाम भी शेष नहीं रहता साँसों में
पाकर के नैराश्य, जलाना आशादीप नियति जीवन की
देव गिर गया जो नजरों ने ,फिर से न हो पाता पूजित .
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