आज उतरा है धरा पर अवतरित जो रूप होकर
मेनका भी उर्वशी भी देख कर हैरान होते
चाँदनी की झील से उभरा हुआ यह संदली तन
पाँव में रचती महावर लालिमाएँ आ उषा की
गंध के बादल उड़ाती कुन्तलों की एक थिरकन
नैन की परछाइयों से कालिमा सजती निशा की
मदभरी इक दॄष्टि के इंगित-भ्रमों का स्पर्श पाकर
इंद्र के मधु के कलश भी मुंह छुपा हलकान होते
विश्वकर्मा के सपन की एक छवि जो हाथ में ले
कूँचियाँ, उसने जतन से शिल्प में जैसे चितेरी
रंगपट्टों के ख़ज़ाने खोल कर अपने समूचे
विश्व की सम्मोहिनी ले एक प्रतिमा में उँडेरी
देवता, गंधर्व, किन्नर और मानव, ऋषि मुनि सब
एकटक बस देखते है , देखकर हैरान होते
पाँव को छू पंथ की भी धूल में आ फूल खिलते
पड़ रही परछायों से सैकड़ों सँवरी अजंता
ओस में निखरे हुये प्रतिबिम्ब से बँनती एलोरा
और तन की कांति छूकर स्वर्ण का पर्वत पिघलता
देख कर सौंदर्य का यह रूप अद्भुत और अलौकिक
शायरों के होंठ पर हर पल नए दीवान होते