मैंने उसको छुपा के अपनी अनुभूति इक पत्र लिखा था
कुशल क्षेम के शब्दों तक ही सीमित करके बात कही थी
लेकिन पता नहीं था मुझको उसकी गहन परख की नज़रें
अक्षर की आकृति में गुँथ जाते भावों को यूँ पढ़ लेंगी
शब्द शब्द के मध्य बिछी है अर्थ लिए जो कतिपय दूरी
उसको सहज भूमिका कर के इक नूतन गाथा गढ़ लेंगी
सम्भव है उसकी स्मृतियों में शिलालेख होंगे वे पल जब
मेरी मूक दृष्टि ने चुपके चुपके उसकी बाँह गही थी
जितने भी संदर्भ पत्र की पृष्ठ भूमि में छुपे हुए थे
उसे विदित थे जाने कैसे, जोकि किसी ने नहीं बताए
उसके अधर गुनगुनाते थे सरगम पर उन ही गीतों को
एकाकी संध्या में मैंने पूरबा को इक रोज सुनाए
सूनेपन की चादर ओढ़े था उस दिन वह तीर नदी का
जब कि किसी की गंध मलयजी छू मुझको चुपचाप गयी थी
ये भी तो सोचा था मैंने उसे पत्र लिखने से पहले
क्या संबोधन देकर अपने संदेशे को शुरू करूं मैं
नाम लिखा था केवल उसने भांप लिया ये जाने कैसे
किन भावों का एक नाम की सीमितता में हुआ समन्वय
मैंने उसको छुपाके मन की बातों को सन्देश लिखा था
लेकिन उसको छिपी हुई हर अनुभूति, अभिव्यक्त रही थी