भोर का हटाने लगा है आवरण

 भोर का आवरण 




छँट गया तम मवासी अब व्योम से 
भोर का हटने लगा है आवरण 

गूंजती है  मंदिरों में आरती
साथ में ले बज रही कुछ घंटियाँ
रश्मियों का कर रहे स्वागत पुनः 
कर्ष के द्वारा, खुली है खिड़कियाँ 

भर रहा उल्लास से फिर आज मन
इक नए संकल्प का ले आचमन 

धार नादिया की टाटी पर छेड़ती
जलतरंगों की मदिर मोहक धुनें
झाड़ियाँ लहरा रही है तीर पर
राग सरगम के नये से जब सुनें

मुस्कराने लग गया वातावरण
मौसमों ने आज बदला आचरण 

 हैंड ख़ुद ही अब संवारने लग गये
अंतरे भी आप बनाने लग गये
शब्द अपने आप माला में जिंथे
और मुखड़े  आ निखारने लग गये 

आँजने भाषा लगी है व्याकरण
भोर का हटाने लगा हैनेड लगा है आवारा  

राकेश खंडेलवाल
२६ अप्रैल २०२३ 










काल की हाट में

 काल की हाट में 


काल की हाट में मिल  किसी बिना
साँस दो कौड़ियों में ही बिकती रही 

नभ में चंदा उगाते उमर ढल गई
दीप में राग गाते जवानी गली
एक पथे को बुहारा,  भुजाएँ थकी
साथ मन रही आस इक अधखिलीढ
साँझ। के गाहफबका रास्ता 
रोज़ जी   ज़िंदगी जू दुपहरिया केटी
करते तुड़ोआई साँसों के धसागे चुके
किंतु प्राणों की चादर रही  रही है गति

बस इसी एक ऊहापोह में में उलझ
प्राण की ज्योति दिन रात जलती रही

जब भी देखा है दर्पण, रहा मौन वह
प्रश्न पर प्रश्न पूछे गया बिंब भी
अजनबी अपना प्रतिबिंब लगता रहा
यों ही ढलती रही आँजनी धूप भी
ढूँढ बरसा कड़ी व्योम से हर घड़ी
हाथ को हाथ भी न सुझाई दिया
आँख को उँगलियाँ तो मसलती रही
दृश्य कोई न लेकिन दिखाई दिया

बस यही हाल कल भी रहेगा यहाँ
ये ही कह कर घड़ी एक चलती रही

क्या लिखा है हथेली की रेखाओं में
ज्योतिषी कोई ये बूझ पाया नहीं
इस भुलाइया से निकले कोई किस तरह
साँस खर्ची मगर सूझ पाया नहीं
मंदिरों की ही दीवानियों में सिमट
घंटियाँ थी बजी मौन होने लगी
खो गई रात में चाँद की रोशनी
ज्योति तारों की भी गौण गो री रह गई

मुट्ठियाँ यों खुली, धड़कनों डोरियाँ
उँगलियों से निरंतर कर फिसलती रही

राकेश खंडेलवाल
१६ अप्रैल २०२३ 
 


धागा जो था तकलियों पर कता

 ढल रही साँझ इस ज़िंदगी की यहाँ

डूब जाएगा कब सूर्य क्या है पता

कोष साँसों का होता रहा रात दिन
खर्च, बाक़ी है जो उँगलियों पर गिनी
धड़कनें शेष दिल की जो बाक़ी रही
क्या विदित है समय ने वो कितनी चुनी
बिंब बन कर रहे आज चलचित्र से
काल के क्षण जिनको जिया हम किए
याद फिर आ रहे सारे अनुबंध वे
राह चलते हुए हमने किए 

टूट कर गाँठ बन कर के जुड़ता रहा
एक धागा जो था तकलियों पर कता

इक लहर नभ की मंदाकिनी से उठी
पास अपने हमें अब बुलाने लगी
पालकी हर घड़ी दूर होकर खड़ी
देख कर हमें खिलखिलाने लगी
जन्मपत्री के भटके ग्रहों की दिशा
पंथ में ठोकरें खाती चलती रही
जोड़ बाक़ी गुणा भाग के ही गणित
में, बची साँस जाकर उलझने लगी 

रिक्त हो जाएँगीं पूनियाँ पास की
भोर उग कर जागेगी जो कल आ यहाँ 

जाकर किससे करें शिकायत

 

धूप चमकती है पूरे दिन
टँका समय अलगनियों पर
किससे जाकर करें शिकायत
मौसम की रंगरेलियों पर 

गर्म हवा के झोंके ख़सर
सुख रहे पत्ते सारे
पूरी बगिया पर छाते हैं 
बस पतझड़ के अंधियारे 

एक शुषाक्तता घिरती है
खिलने से पहले कलियों पर
किससे जाकर करें शिकायत
मौसम की रंगरेलियों पर

निर्जल हुई भाव की नदिया
शब्द नहीं अब ढल पाते
स्वर घुट कर रह गये कंठ में
गीत भला कैसे गाते 

बस अवसाद गिरा है आकर
मन की गितांजलियों पर
सुन पाएगा कौन शिकायत
मौसम की रंगरालों पर 

दिन के उगते उगत छाते
अस्ताचल के अंधियारे
घने तिमिर में लिपटे रहते
घर आँगन और चौबारे 

एक कटोरा भरी अमावस
बरसी आकर गलियों पर
सुन पाया है कौन शिकायत
मौसम की रंगरेलियों पर 

राकेश खंडेलवाल 
अप्रैल #२०२३


कौन है आवाज़ देता

 कौन है आवाज़ देता द्वार खोले

पर अधर पर शब्द रहते हैं अबोले
और कहती है थकान कुछ और सो ले 

डूब कर असमंजोंनाजों में रह गया मन

एक आलस   हाथ पाँवों को जकड़ता
नयन  में आँजा हुआ सपाना बिखरता
और चेतन रह गया है हाथ मलता 

शिनजिनी लहरे शिराओं में झाँसा झन्

ज़िंदगी की साँझ अंतिम ढल रही है
कल उगेगी भोर ये निशित नहीं है
श्वास अपना कोष रह रह गिन रही है 

धड़कनों में है बुझ रहे हैं समय के क्षण 

राकेश खंडेलवाल
अप्रैल २०२३ 





शून्य में डूबा वर्तमान


डूब गया सब कुछ श्याम विवर में
झुक गई बोझिल पलकें
पारदर्शी खुल  गई हैं
दूर तक फैले उजाले
काँच के रंगीन प्याले
छलकाते अभ्राकी चूरा निरंतर 
चित्रपट पर 
तड़पड़ारी कौंधती है 
सातारंगी रश्मियाँ हर और जैसे 
और आता दूर से स्वर
कोई मुरली का मनोहर 
दे रहा आह्वान कोई
चेतना संपूर्ण सोई 


२ अप्रैल २०२३ 


नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...