काल की हाट में

 काल की हाट में 


काल की हाट में मिल  किसी बिना
साँस दो कौड़ियों में ही बिकती रही 

नभ में चंदा उगाते उमर ढल गई
दीप में राग गाते जवानी गली
एक पथे को बुहारा,  भुजाएँ थकी
साथ मन रही आस इक अधखिलीढ
साँझ। के गाहफबका रास्ता 
रोज़ जी   ज़िंदगी जू दुपहरिया केटी
करते तुड़ोआई साँसों के धसागे चुके
किंतु प्राणों की चादर रही  रही है गति

बस इसी एक ऊहापोह में में उलझ
प्राण की ज्योति दिन रात जलती रही

जब भी देखा है दर्पण, रहा मौन वह
प्रश्न पर प्रश्न पूछे गया बिंब भी
अजनबी अपना प्रतिबिंब लगता रहा
यों ही ढलती रही आँजनी धूप भी
ढूँढ बरसा कड़ी व्योम से हर घड़ी
हाथ को हाथ भी न सुझाई दिया
आँख को उँगलियाँ तो मसलती रही
दृश्य कोई न लेकिन दिखाई दिया

बस यही हाल कल भी रहेगा यहाँ
ये ही कह कर घड़ी एक चलती रही

क्या लिखा है हथेली की रेखाओं में
ज्योतिषी कोई ये बूझ पाया नहीं
इस भुलाइया से निकले कोई किस तरह
साँस खर्ची मगर सूझ पाया नहीं
मंदिरों की ही दीवानियों में सिमट
घंटियाँ थी बजी मौन होने लगी
खो गई रात में चाँद की रोशनी
ज्योति तारों की भी गौण गो री रह गई

मुट्ठियाँ यों खुली, धड़कनों डोरियाँ
उँगलियों से निरंतर कर फिसलती रही

राकेश खंडेलवाल
१६ अप्रैल २०२३ 
 


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