ढल रही साँझ इस ज़िंदगी की यहाँ
डूब जाएगा कब सूर्य क्या है पता
कोष साँसों का होता रहा रात दिन
खर्च, बाक़ी है जो उँगलियों पर गिनी
धड़कनें शेष दिल की जो बाक़ी रही
क्या विदित है समय ने वो कितनी चुनी
बिंब बन कर रहे आज चलचित्र से
काल के क्षण जिनको जिया हम किए
याद फिर आ रहे सारे अनुबंध वे
राह चलते हुए हमने किए
टूट कर गाँठ बन कर के जुड़ता रहा
एक धागा जो था तकलियों पर कता
इक लहर नभ की मंदाकिनी से उठी
पास अपने हमें अब बुलाने लगी
पालकी हर घड़ी दूर होकर खड़ी
देख कर हमें खिलखिलाने लगी
जन्मपत्री के भटके ग्रहों की दिशा
पंथ में ठोकरें खाती चलती रही
जोड़ बाक़ी गुणा भाग के ही गणित
में, बची साँस जाकर उलझने लगी
रिक्त हो जाएँगीं पूनियाँ पास की
भोर उग कर जागेगी जो कल आ यहाँ
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