कौन है आवाज़ देता द्वार खोले
पर अधर पर शब्द रहते हैं अबोले
और कहती है थकान कुछ और सो ले
डूब कर असमंजोंनाजों में रह गया मन
एक आलस हाथ पाँवों को जकड़ता
नयन में आँजा हुआ सपाना बिखरता
और चेतन रह गया है हाथ मलता
शिनजिनी लहरे शिराओं में झाँसा झन्
ज़िंदगी की साँझ अंतिम ढल रही है
कल उगेगी भोर ये निशित नहीं है
श्वास अपना कोष रह रह गिन रही है
धड़कनों में है बुझ रहे हैं समय के क्षण
राकेश खंडेलवाल
अप्रैल २०२३
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