प्यार के गीतों कोसोच रहा हूँ आख़िर कब तक लिखूँ प्यार के इन गीतों को
ये गुलाब चंपा और जूही, बेला गेंदा सब मुरझाये
कचनारों के फूलों पर भी चढ़ते नहीं जवानी आकार
बौराती है नहीं ऋतु में , सावन ऑफ़ आम की बगिया
कोयल बाथी मैना सुनाती लूजर भी धुन को गाकर
वर्णित करता रहे कहाँ तक घिसे पूरे जैन शब्द प्रीत के
काजल, मेंहदी, कुमकुम, बिंदिया अब लगते हैं अर्थाहीन सब
गजरा, कुंतल और अलकटक कोई नहीं लुभाता आकार
बहती हुई हवा जो घोले रहती रही साँस की ख़ुशबू
अब आती ही यहाँ जो रखे कक्ष मेरा थोड़ा महकमा कर
करता रहे इन्हीं की बातें नये पृष्ठ रच कर संगीत के
कब तक करूँ अपेक्षा सूखे पपड़ी जमे आधार चुंबन की
कब तक भुजपाशों में बाँधने हों ये मेरी बाँहें
मटमैले काले अंबर के विस्तृत कैनवस पर कब टैम
एक शतारूपे का खाकर खींचे धुंधली हुई निगाहें
रंग बिखेरे प्राची और प्रतिची हर दिन रक्त पीत को
राकेश खंडेलवाल
दिसंबर २०२३
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