अधूरी रही

 स्नेह भर दीप में वर्तिकाएँ जली

थी दिवाली पे सारी की सारी बुझी
आस जो भी रही हो अधूरी सदाज 
गिरवी अधूरी अधूरी रही 

आस थीएक नये वर्ष की भोर नव
लाएगी धूप की साथ अपने फसल
स्वर्णमय रश्मियों का पारस प्राप्त कर
हाथ जी रेख जाएगी थोड़ा बदल
जो बने मॉड हैं बाधा  बन कर खड़े
वो भी समतल ज़रा और हो जाएँगे
कितने वर्षों से जिनकी प्रतीक्षा रही
चंद अच्छद दिवस सामने आयेंगे

पर नई धूप भी आ मादरी बनी
ज़िंदगी हाँ मिलाते जमरी रही 

जब दिवाली गई आके क्रिसमस सजी
फिर नया वर्ष आकार खड़ा हो गया
उत्तरायण गगन में दिवाकर हुआ
और दिन पहले से अब। बड़ा हो गया
होके बासंतीय चल पड़ी फिर हवा
होली आई थी फगवा सुनाते हुए
उसको कर के। वीसा जेठ हंसाने लगा
धूप में ताप अपना बढ़ाते हुए

तन को झुलसा रहा धूप का ताप,क्रम
दूर होकर के ऊटी मसूरी रही


फिर घिरे सावनी मेघ आकाश में 
और राखी बांधी हाथ बन फुलझड़ी
टेसुओं, सांझियों के मेले लगे
आई दशमी विजयमाल की ले लड़ी
घूम फिर कर वही आई दीपावली
था जहां से शुरू वर्ष भर का सफ़र
बस इसी एक जंजाल में थी उलझ
तय हई ज़िंदगी ये समूची गुजर

आस थी भीख में भी उपेक्षा लिए
भाग्य की करती बस जीहूज़ूरी रही 

राकेश खंडेलवाल 
दिसंबर २०२३। 









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