आज जो बात है वो ही कल भी रहे

बात जो है हमारी तुम्हारी प्रिये
कल भी थी, आज भी, और कल भी रहे

चारदीवारियों में सिमट रह गईं
आज तक कितनी गाथायें हैं प्रेम की
और कितनी लिखी जा रहीं भूमिका
बात करते हुए बस कुशल क्षेम की
कितनी संयोगितायें हुईं आतुरा
अपने चौहान की हों वे वामासिनी
शीरियां कितनी बेचैन हैं बन सकें
अपने फ़रहाद के होंठ की रागिनी

आज शाकुन्तला अपने दुष्यन्त के
अंक से दूर न एक पल भी रहे

सिक्त मधु से अधर, ने अधर पर लिखी
जो लिखी जा चुकी है कहानी वही
वाटिका में ह्रदय की किये जा रहीं
भावनायें पुन: बागवानी वही
योजना ताजमहलों के निर्माण की
हर घड़ी हर निमिष हैं बनाईं गईं
और विद्दोत्तमायें सपन आँज लें
इसलिये बदलियां नित पठाईं गईं

आओ फिर आज दोहरायें हम वे वचन
जो शची ने कभी इन्द्र से थे कहे

आओ हम प्रीत के पंथ पर रीत से
हट चलें और कुछ आज ऐसा करें
कल मिलें दॄष्टियां, डूब जब प्रीत में
उनको मानक बना अनुसरण सब करें
एक अध्याय नूतन लिखें आओ हम
पॄष्ठ जोड़ें नया एक इतिहास में
और जुड़ जायें सन्दर्भ की डोर से
प्रेम गाथाओं के मूक आभास में

नभ की अँगनाई में सन्दली गंध ले
प्रीत पुरबाई बन रात दिन बस बहे

एक नाम बस नाम तुम्हारा

सूरज की पहली अँगड़ाई ने द्वारे पर आन पुकारा
सबसे पहले मेरे होठों पर तब आया नाम तुम्हारा

उगी भोर की प्रथम रश्मि ने खिड़की की झिरियों से आकर
दीवारों पर चित्र तुम्हारे रँगे सात रंगों में जाकर
फूलों की पांखुर से फिसले हुए ओस कण से प्रतिबिम्बित
स्वर्ण मयी आभा से उनका रूप सँवारा सजा सजा कर

सप्त अश्व रथ गति से उभरी हुई हवा ने उन्हें दुलारा
शाश्वत एक मेरे जीवन का, विश्वमोहिनी नाम तुम्हारा

सद्यस्ना:त नदी की लहरें, लगा हुआ माथे पर चन्दन
सुरभि, वाटिका की देहरी से रह रह करती है अभिनन्दन
पूजा की थाली में कर्पूरी लौ, दीपशिखा से मिलकर
करती है मंगल आरतियों से पल पल पर जिसका वन्दन

तॄषित चातकी मन, अम्बर की वीथि वीथि में जिसे पुकारा
मलय गंध से लिखा चाँदनी ने जो, बस वह नाम तुम्हारा


उड़ी नीड़ से परवाजों ने लिखा हवाओं के आँचल पर
यायावर के पाथेयों की सहभागी बनती छागल पर
पिरो स्वरों में अगवानी के बना मंदिरों की आरतियां
दिखा मुस्कुराता हर क्षण में नभ में विचर रहे बादल पर

और क्षितिज की देहरी पर से प्राची ने जिसको उच्चारा
मधुपूरित रससिक्त एक वह प्राणप्रिये है नाम तुम्हारा

गीत श्रॄंगार ही आज लिखने लगा

वेणियों में गुँथा मुस्कुराता हुआ, मोतिया गीत गाने लगा प्यार के
आँज कर आँख में गुनगुनाते सपन, गंध में नहा रही एक कचनार के

चूड़ियों ने खनक, चुम्बनों से लिखी, पत्र पर कंगनों के कहानी कोई
मुद्रिका उंगलियों में सरसने लगी, प्रीत की फिर बनेगी निशानी कोई
हाथ पर एक हथफूल ने फिर हिना ले, लिखी प्यार की इक गुलाबी शपथ
और भुजबंध पर सरसराती हुई आई चूनर उमंगों में धानी कोई

अल्पनायें अलक्तक बनाने लगा, रंग उभरे नये एक त्यौहार के
वेणियों में गुंथा मुस्कुराता हुआ, मोतिया गीत गाने लगा प्यार के

नथ का मोती, हवा संदली से कहे, गंध किसके बदन की लिये हो कहो
बोरला एक टिकुली से रह रह कहे, कुछ तो बोलो प्रिये, आज चुप न रहो
एड़ियाँ अपनी, झूमर उठाते हुए, लटकनों को कहें मौसमों की कसम
आज इस ब्यार की उंगलियाँ थाम कर, प्यार की वादियों में चलो अब बहो

लौंग ने याद सबको दिलाये पुन:शब्द दो नेह के और मनुहार के
आँज कर आँख में गुनगुनाते सपन, गंध में नहा रही एक कचनार के

तोड़िया झनझना पैंजनी से कहे, आओ गायें नये गीत मधुमास के
पायलों के अधर पर संवरने लगे बोल इक नॄत्य के अनकहे रास के
और बिछवा जगा रुनझुनें पांव पर की अलसती महावर जगाने लगा
झालरें तगड़ियों की सुनाने लगीं बोल गलहार को आज विश्वास के

यों मचलने लगा रस ये श्रॄंगार का, गीत लिखने लगा और श्रॄंगार के
लेखनी ओढ़ मदहोशियां कह रही, दिन रहें मुस्कुराते सदा प्यार के

शत शत नमन तुम्हें करता हूँ

कभी क्षीर वारिधि की शोभा, मधुसूदन की कभी दिवानी
कभी उर्वशी कभी लवंगी और कभी हो तुम मस्तानी

तुम्हें देख नीरज ने इक दिन लिख दी थी नीरज की पाती
तुलसी चौरे दीप जला कर देखा था करते संझवाती
पुरबा आकर फुलवारी में वे ही बातें दोहराती है
जो तुम चुपके से कलियों के कानों में आकर कह जातीं

खंड काव्य के सर्ग रहे हों या हो नज़्म किसी शायर की
शुरू तुम्ही से और तुम्हीं पर अंत हुई हर एक कहानी

ओ शतरूपे ! तुम्ही मांडवी, तुम्ही उर्मिला, तुम यशोधरा
भद्रे तुम श्रुतकीर्ति कभी हो, कभी सुभद्रा कभी उत्तरा
कलासाधिके ! नाम तुम्हारे चित्रा रंभा और मेनका
पल में कभी रुक्मिणी हो तुम,कभी रही हो तुम ॠतंभरा

स्वाहा, स्वधा, यज्ञ की गरिमा, वेदों की तुम प्रथम ॠचा हो
श्रुतियों में जो सदा गूँजती, तुम ही वह अभिमंत्रित वाणी

तुम हिमांत के बाद गुनगुनी पहली पहली धूप खिली सी
तुम वीणा के झंकॄत स्वर में जलतरंग हो घुली घुली सी
तुम अषाढ़ के प्रथम मेघ से जागी हुई मयूरी आशा
विभा शरद के शशि की हो तुम, जोकि दूध से धुली धुली सी

तुम अनंग की मधुर प्रेरणा, तुम तंद्रा से जागी ज्योति
पाकर स्पर्श तुम्हारा कुसुमित हो जातीं सुधियां वीरानी

तुम बसन्त की अगवानी में गाती हुई कोयलों का सुर
तुम झंकार, खनकता है जो शचि के पग में शोभित नूपुर
जागी हुई हवा की दस्तक से अँगड़ाई एक घटा की
भाव एक वह तुम, भरती है जिससे संकल्पों की आँजुर

हर स्वर हर व्यंजन भाषा का, है जीवंत तुम्ही से केवल
तुम्हें समर्पित, तुमको अर्पित, छंद छंद कविता कल्याणी

नव वर्ष २०२४

नववर्ष 2024  दो हज़ार चौबीस वर्ष की नई भोर का स्वागत करने खोल रही है निशा खिड़कियाँ प्राची की अब धीरे धीरे  अगवानी का थाल सजाकर चंदन डीप जला...