घिस गई जो पिट गई जो बात वह गाता नहीं हूँ
गा चुके जिसको हजारों लोग, दोहराता नहीं हूँ
भाव हूँ मैं वह अनूठा, शब्द की उंगली पकड़ कर
चल दिया जो पंथ में तो लौट कर आता नहीं हूँ
गीत में जो ढल रहा है, मैं स्वयं ही हूँ अनावॄत
कोई कॄत्रिम भाव मैने आज तक ओढ़ा नहीं है
गीत का सर्जक मुझे तुमने कवि अक्सर कहा है
और कितनी बार सम्बोधन मेरा शायर रहा है
मैं उच्छॄंखल आंधियों की डोर थामे घूमता हूँ
किन्तु मेरा साथ उद्गम से सदा जुड़ कर रहा है
मैं विचरता हूँ परे आकाशगंगा के तटों के
पर धरा की डोर को मैने अभी तोड़ा नहीं है
मैं उफ़नती सागरों की लहर को थामे किनारा
मैं संवरती भोर की आशा लिये अंतिम सितारा
मैं सुलगती नैन की वीरानियों का स्वप्न कोमल
लड़खड़ाते निश्चयों का एक मैं केवल सहारा
मैं वही निर्णय पगों को सौंपता जो गति निरन्तर
और जिसने मुख कभी बाधाओं से मोड़ा नहीं है
जो अँधेरे की गुफ़ा में सूर्य को बोता, वही में
वक्ष पर इतिहास के करता निरन्तर जो सही, मैं
उग रहा जो काल के अविराम पथ पर पुष्प मैं हूँ
शब्द ने हर बार स्वर बन कर कथा जिसकी कही ,मैं
मैं सितारा बन निशा के साथ हर पग पर चला हूँ
व्यर्थ का सम्बन्ध कोई आज तक जोड़ा नहीं है
जन्म लेती हैं हजारों क्रान्तियां मेरे सुरों में
मैं लहू बन कर उबलता हूँ युगों के बांकुरों में
मैं बदलता हूँ दिशा के बोध अपनी लेखनी से
मैं अटल हूँ शैल बनकर, हूँ प्रवाहित निर्झरों में
मैं निराशित स्वप्न को हूँ एक वह सन्देश अनुपम
आस की जिसने कलाई को कभी छोड़ा नहीं है