हिना की रंगत हथेलियों पे

तुम्हारे अधरों की सिहरनों ने लकीर हाथों की जब से छू ल
तभी से रंगत हिना की गहरी हुई है मेरी हथेलियों पे

नयन के दर्पण में आ के संवरीं हजार झीलें उषा की झिलमि
कपोल पर आ लगीं थिरकने सिन्दूर घोले हुए विभायें
अधर कीथिरकन में थरथरा कर अटकती वाणी लगी है खोने
लगीं सिमटने हैं पगतली में उमड़ उमड़ कर सभी दिशाये


तुम्हारे होठों ने जो कहा है बिना सुरों की उंगलियां थामे
वे बात किस्सों में ढल गईं हैं, मेरी सखी के सहेलियों के

उमड़ता है बांसुरी का इक सुर अजाने मन की गहन गुफ़ा में
शिरा में आकर लगे मचलने हैं ज्वार पल पल ही शिंजिनी के
पलक पे आ कर टिकी हुइ है बड़े वज़न की लो एक गठरी
औ पैंजनी से झनक रहे हैं बदन में स्वर जैसे सनसनी के

तुम्हारी नजरों ने मेरी नजरों से जो कहा है तरंग में बो
न जाने क्यों उससे जन्म होने लगे अचानक पहेलियों के

लगा है कंगन कुछ खुसपुसाने, नजर झुका कर अंगूठियों से
लिखे है उंगली के पोर पर कुछ दुपट्टा रस में भिगोई बातें
लगा अटकने है होठं की आ गली में मेरा सुनहरा आंचल
खिली है निशिगंधायें दुपहरी , बना दिवस को रँगीन रातें

तुम्हारे भीने परस ने छू कर मुझे कहा है जो मौन स्वर में
संवरने आंखों में लग गये हैं, जो स्वप्न होते नवेलियों के





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3 comments:

Udan Tashtari said...

वाह!! अद्बुत रचना..एक अलग रंग मे...


आनन्द आ गया!!


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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

अनेक शुभकामनाएँ.

रंजना said...

आपके लेखन पर तो कुछ कहना.....बस सूरज को दीपक दिखाने के सामान है....इसलिए क्या कहूँ...

माता सदा आपपर सहाय रहें और आप हिंदी साहित्य को समृद्ध करते रहें...

(कुछेक टंकण त्रुटियाँ रह गयीं है...कृपया एक बार देखा कर उन्हें सुधार लें)

Shardula said...
This comment has been removed by the author.

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