सुबह घड़ी वाले अलार्म से ढली सांझ की न्यूजकास्ट तक
पूरा दिन ही घिरा शोर में ,अब मैं ही थोड़ा चुप रह लूँ
देहरी से आगे बढ़ते ही डेसीबल बढ़ते लगता है
चौराहों पर कार बसों की चिर परिचित घर घर आवाज़ें
ट्रेफ़िक के हेलीकाप्टर का स्वर गूँजित करता सुबहा को
और कम्प्यूटिंग के प्लेन की शनै शनै बढ़ती परवाजे
घर से दफ़्तर की आधी दूरी में इतना कुछ हो जाता
मन ख़ुद से ही प्रश्न पूछता कितने दिनों और ये सह लूँ
वेबिनार हैं, काँफ़्रेंस है, वाटर कूलर वाली गप शप
बिना रूके बजता रहता है शोर फ़ोन की घंटी का भी
हाल पूछते है कुलिग भी आते जाते रुक द्वारे पर
आफिस। में रहती है हलचल जैसे सब्जी मंडी की सी
आतुरता बढ़ती कैसे एकाग्र चित्तता के पल पाएँ
शांत सरोवर की लहरों सा कुछ पल तो एकाकी बह लूँ
ट्विटर फ़ेसबुक, वाटसेप्प के लगातार ही बढ़ते हेले
कविता, लेख, कहानी सब पर टिप्पणियों का है आवाहन
कहाँ कहाँ पर मिली प्रशंसा, कहाँ कहाँ पर गए छपे हैं
दिवस निशा के हर इक पल पर चीख़ा करता है विज्ञापन
सोच रहा हूँ मैं ना ही क्यों इस सब से मुंह मोडू अपना
और मौन स्वर रख कर अपना, जो कहना खुद से कहलूँ
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