अब कोई यदि मेरे पथ पर
बैठे चाहे पलक बिछाकर
अब कोई यदि गहन निशा में
रहे प्रतीक्षित दीप जला कर
में उस पथ के पथ से भी अब इतनी दूर निकल आया हूँ
सम्भव नहीं राह ले जाए मेरे क़दमों को लौटा कर
याद न बाक़ी उन मोड़ो की जहाँ किसी चितवन से बिंध कर
सम्भव है पग फिसले होंगे या कि रहे हों ज़रा ठिठक कर
या संध्या की अंगनाइ में गिर, घिरते सुरमाएपन ने
खोला होगा कुछ पृष्ठों को अनायास ही हिचक हिचक कर
अब कोई यदि मेरे पथ पर
खोले उस पुस्तक के पन्ने
अब कोई यदि मेरे पथ पर
फिर से लगे इबारत लिखने
सम्भव नहीं मुझे पढ़ पाना लिखा हुआ अब कोई अक्षर
सम्भव नहीं राह ले जाए मेरे कर्दमों को लौटा कर
कभी नदी की लहरों ने थी छेडी जलतरंग तट पर आ
और वादियों में गूँजी थी किसी बाँसुरी की सुर लहरी
पेंजानियाँ झंकार उठी थी सरगम की उँगली को थामे
मन के इतिहासों में ये सब बातें कहीं खो चुकी गहरी
अब कोई यदि मेरे पथ पर
अपनी पायलिया खनकाये
अब कोई भी मेरे पथ पर
आ वंशी की तान सुनाए
सम्भव नहीं मुझे छू पाये जल तरंग का मद्धम भी स्वर
सम्भव नहीं राह ले जाए मेरे क़दमों को लौटा कर
बिखर चुकी है संजो रखी थी बरसों से जो जर्जर गठरी
परसों के अख़बार सरीखा उसका कुछ भी मोल न बाक़ी
अंधाधुँधी भागदौड़ में स्पर्धा प्रतिस्पर्धा ने मिल कर
बीते दिवसों की मदिरा पी, रीती की सुधियों की साक़ी
अब कोई भी मेरे पथ पर
संस्कृतियों की बात सुनाए
अब कोई यदि मेरे पथ पर
मधुरिमा सम्बंन्धों को गाये
सम्भव नहीं विगत से लाए कोई पैमाना छलका कर
सम्भव नहीं राह ले जाए मेरे क़दमों को लौटा कर
बैठे चाहे पलक बिछाकर
अब कोई यदि गहन निशा में
रहे प्रतीक्षित दीप जला कर
में उस पथ के पथ से भी अब इतनी दूर निकल आया हूँ
सम्भव नहीं राह ले जाए मेरे क़दमों को लौटा कर
याद न बाक़ी उन मोड़ो की जहाँ किसी चितवन से बिंध कर
सम्भव है पग फिसले होंगे या कि रहे हों ज़रा ठिठक कर
या संध्या की अंगनाइ में गिर, घिरते सुरमाएपन ने
खोला होगा कुछ पृष्ठों को अनायास ही हिचक हिचक कर
अब कोई यदि मेरे पथ पर
खोले उस पुस्तक के पन्ने
अब कोई यदि मेरे पथ पर
फिर से लगे इबारत लिखने
सम्भव नहीं मुझे पढ़ पाना लिखा हुआ अब कोई अक्षर
सम्भव नहीं राह ले जाए मेरे कर्दमों को लौटा कर
कभी नदी की लहरों ने थी छेडी जलतरंग तट पर आ
और वादियों में गूँजी थी किसी बाँसुरी की सुर लहरी
पेंजानियाँ झंकार उठी थी सरगम की उँगली को थामे
मन के इतिहासों में ये सब बातें कहीं खो चुकी गहरी
अब कोई यदि मेरे पथ पर
अपनी पायलिया खनकाये
अब कोई भी मेरे पथ पर
आ वंशी की तान सुनाए
सम्भव नहीं मुझे छू पाये जल तरंग का मद्धम भी स्वर
सम्भव नहीं राह ले जाए मेरे क़दमों को लौटा कर
बिखर चुकी है संजो रखी थी बरसों से जो जर्जर गठरी
परसों के अख़बार सरीखा उसका कुछ भी मोल न बाक़ी
अंधाधुँधी भागदौड़ में स्पर्धा प्रतिस्पर्धा ने मिल कर
बीते दिवसों की मदिरा पी, रीती की सुधियों की साक़ी
अब कोई भी मेरे पथ पर
संस्कृतियों की बात सुनाए
अब कोई यदि मेरे पथ पर
मधुरिमा सम्बंन्धों को गाये
सम्भव नहीं विगत से लाए कोई पैमाना छलका कर
सम्भव नहीं राह ले जाए मेरे क़दमों को लौटा कर
No comments:
Post a Comment