एक अदेखे भय से जकड़ी हुई गली से पगडंडी
हर चौराहे पर हर दिशि में लटकी हुई लाल झंडी
पग झिझक करते हैं करने पार द्वार को देहरी को
होता है प्रतीत मोड़ों के पार खड़ी आकर चण्डी
बीते हुए बरस आँखों में आने दूभर होते हैं
आँखो पर दस्तक देते हैं सपने बीती चुके कल के
“दीवाली पर जगमग जगमग जब सारे घर होते थे
रही थरथराती दीपों में प्रज्ज्वलित हुई वर्तिकाएँ
क्या जाने किस खुली डगर से आएँ उमड़ी झंझाएँ
खील बताशे खाँड़ खिलौने बाज़ारों में नहीं दिखे
हलवाई की दूक़ानों पर गिफ़्ट बाकस भी नहीं चिने
होंठों तक आते आते शुभ के स्वर पत्थर होते हैं
गल्प समझते हैं बच्चे भी सिमट रह गए कैमरों में
दीवाली पर जगमग जगमग जब सारे घर होते थे
बुझी हुई आशाओं के सारे ही स्पंदन रुके लगे
लेकिन फिर भी मन की अंगनाएँ में। इक विश्वास जगे
तिमिर हटाने को काफ़ी है एक दीप की जाली शिखा
एक किरण से दीपित होती है कोहरे में घिरी दिशा
यही आस्था लिए आज हम गति को तत्पर होते हैं
खींचें स्याह कैनवस पर हम चित्र आज वे बहुरंगी
दीवाली पर जगमग जगमग जब सारे घर होते हैं
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