21 November 2020



समय की तीव्र गति में चन्द पल वे रह गये थम कर
सिमट कर आये थे तुम जिस घड़ी भुजपाश में मेरे
 
बजे जब वायलिन कोई नदी के मौन से तट पर
सुरों की सरगमों के साथ लहरें नृत्य करती हौं
बुढ़ाई सांझ की धुंधला गई सी एनकों पर से
लड़ी सी जुगनुओं की यों लगे बुझती दमकती है
 
तुम्हारा नाम ही बस तैरता है वाटिकाओं में
कहीं पर दूर लगता बांसुरी धुन कोई है टेरे
 
लिखे हों श्याम पृष्ठों पर गगन के दूधिया अक्षर
उन्हीं में हैं अनुस्युत पत्र जो तुम लिख नहीं पाये
परस ने ओस के छेड़ी जो सिहरन पुष्प पाटल पर
उसी में गूँजते हैं गीत  हमने साथ जो गाये
 
धन्क के रंग में अंकित सपन समवेत नयनों के
हवा की गंध को रहते हमारे साये ही घेरे


शरद योवन की सीढ़ी पर प्रथम पग रख रहा उस पल
पिघल करचाँदनी टपकी निशा की शुभ्र चूनर से
स्वयं आकर टंके थे फूल नभ के ओढ़नी में आ
चमक  चंदा चुराता था तुम्हारे कर्ण झूमर से

हुआ है पंथ जो यह उननचालिस मीलों का
मेरी सुधियों में लेते हैं वही पगचिह्न। बस फेरे 

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