कृष्ण ज़रा मुझको बतलाना
जब जब नाम तुम्हारा आता
प्रश्न पूछने लगते पल छिन
कृष्ण ज़रा मुझको बतलाना
क्या तुम दोगे उनका उत्तर
कालिन्दी के तट की सिकता
जिसने पगतलियाँ चूमी थी
वृंद कुंज वे जहां बांसुरी की
धुन, प्रतिध्वनि बन गूंजी थी
वे कदम्ब के वृक्ष बने थे
अलगनियाँ वस्त्राभूषण की
और जहां पर चाँद निशा में
खनक पायलों की ठुनकी थी
गए द्वारका जब से, तब से
एक बार न वापिस आए
कृष्ण ज़रा मुझको बतलाना
क्यों न देखा कभी पलट कर
जिसके अधरों के चुम्बन से
मुरली और सुरीली होती
पल में रूठी, पल में मनती
पल में और हठीली होती
नंद गाँव से बरसाने के
पथ की दूरी शून्य हुई थी
उस राधा की याद तुम्हारे
मन को आ क्या नहीं भिगोती
पटारानी रुक्मिणी और भामा
के संग बातों बातों में
कृष्ण ज़रा मुझको बतलाना
ज़िक्र किया क्या। कभी झिझक कर
फिर जब प्रीत संगिनी मन की
आ महलों में बनी देविका
मुरली में सरगम के नूपुर
कैसे बोती कहो सेविका
भावों की अंतर्ज्वाला में
जलते हुए ह्रदय का आँगन
बना हुआ था आहुतियों को
बूँद बूँद पी रही वेदिका
जब वंशी ने आरोहण से
अवरोहण का मौन ले लिया
कृष्ण ज़रा मुझको बतलाना
क्या सुर गूंजा कहीं उभर कर
राकेश खंडेलवाल
सिल्वर स्प्रिंग, मैरीलेंड
No comments:
Post a Comment