नित साँझ ढले लौटा करता, मन उस अतीत के खंडहर में
जिसमें धुँधुआसे चित्रों का कोई अवशेष नहीं बाक़ी
उन उजाड़ चुके गलियारों में अब कोई पाँव नहीं धर्ता
जिनकी रज बनी अलकनंदा थी पग का शृंगार सजाने को
जिनकी नक़्क़ाशी उतरी थी मेंहदी के बूटी में आकर
पाँखुर सी छंद उँगलियो को दुल्हन की तरह सजाने को
अब वहाँ हवाओं का कोई झोंका भी नहीं झांकता है
बिखरी है दृष्टि पटल पर बस मरु के रंगो वाली माटी
वे बरादरियाँ जिनमें थी दोपहरी रहती आधलेटी
वो बिछी धूप का आँगन जो हर रोज़ सुखाता था बाडियाँ
कुछ दलती हुई डरेंगे पर डालो की सरग़म के सुर में
थी। ताल मिलाते चर मर चर पेंगे ले झूलो की कड़ियाँ
क्यों लौट रहा मन आवारा फिर फिर वापिस उन गलियों में
जिन मधुशालाओं के दवारे अब छोड़ गई सुधि की साक़ी
जिसके पीछे बूढ़े बरगद की छाया में संध्या ढलती
दरवेश कथाएँ चंगो पर दे थाप झूमती रहती थी
सारंगी अलगोजे से मिल बमलहरि को छेड़ा करती
हो मगन गीत के बोलों पर पैंजनिया खनक करती थी
क्या पता तुझे ? कुछ प्राप्त नहीं हो पाएगा उस स्थल पर से
सब लील चुकी है तथाकथित उन्नति बन करके सुरसा सी
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