न तो कुछ लिखने का ही है और न कुछ पढ़ने का मन है
नयनों की ड्यौढ़ी पर आकर अटका हुआ एक सावन है
कल तक जितना था कविता से उतना ही हूँ आज अजाना
शब्दों के गहरेपन की सीमाओं को मैं न पहचाना
भावों से लेकर वाणी में ढलने तक अक्षर की काया
कितने रंग बदल लेती है, नहीं समझ
में
संभव आनायह मेरी ही अक्षमता है, रही सोच की सीमित सीमा
तब ही तो भाषा ने मुझसे ठानी हुई तनिक अनबन है
मौन हुए स्वर जब भी चाहा बातें व्यक्त करूँ मैं मन की
बिना दीप के रही सर्वदा तुलसी उगी मेरे आंगन की
नैवेद्यों की उंगली पकड़े संझवाती के सूने पथ पर
चलती रही आस की धुन पर बजती हुई ताल धड़कन की
रूठ चुके आराधित से कब शेष रहा है कोई अपेक्षित
सिमट गया पूजा की थाली में हर संवरा आराधन है
हुआ समर्पित चार कदम चल कर पथ में ही जो यायावर
नीड़ नहीं पाथेय नहीं न मिला उसे निशि या फिर वासर
अपनी सजी हुई दूकानों को समेट अपने कांधे पर
खुद खरीदता,खुद ही बेचा करता, है कैसा सौदागर
चुप होकर बहार के झोंके बैठे हाथ हाथ पर धर कर
बजता है हर एक दिशा में बस पतझर का विज्ञापन है
राकेश खंडेलवाल
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