ताना बाना बुने कबीरा


एक लुकाटी एक कठौती एक चदरिया चाहे जीवन
निशा दिवस फिर भी करघा ले ताना बाना बुने कबीरा

कते सू​त ​ को बुनते बुनते खो देता संतोष हृदय का
धुनिया से माँगे धुन कर दे उसको वह रेशम के धागे
बढ़ती आकांक्षाओं की सीमाए विस्तृत होती जाती
​मुंड़ी हुई भेड़ों के दवारे जाकर ऊन भीख में माँगे

भूला है मंज़िल के पथ पर संचय साथ नहीं चलता है
यायावर सब एक सरीखे, रहे धनिक या रहे फ़क़ीरा

धूप छाँह की आँखमिचौली का पीछा करते करते ही
एक वृत्त में चक्करघिन्नी बना हुआ ही घूमा करता
कैलेंडर की शाखाओं से झरते है दिनमान निरंतर
बिना ध्यान के बस अपनी परछाईं में ही खोया रहता

आपाधापी धमाचौकड़ी की बिसात फैला कर अपनी
सपना देखे एक चाल में ही प्यादे से बने वजीरा

केवल अपना बिम्ब निहारे उगी भोर से ढली साँझ तक
प्रतिबिंबों की इक मरीचिका का प्रतिपल ही पीछा करता
कर काँधे की छागल ख़ाली तपते मरु की पगडंडी पर 
स्वाति मेघ के घिर आने की असफल एक प्रतीक्षा करता

ज्ञात उसे है अंतर्मन की शांति , तोष का पथ देती है
फिर भी खोजा करता उस​को ​ पीट पीट कर ढोल मंजीरा 

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