अब नहीं खिलती यहाँ परचाँदनी रातें
बदल मौसम धुआँसा हो गया है
झील सूखी है , महानद
के किनारे गले मिलकर
रो रहे हैं युग बिताया
एक दूजे से बिछड़ कर
देख कर के यह मिलन, इक
धूप का टुकड़ा रुआँसा हो गया है
है बिलखती आग भी
यह आग जलती देख कर के
मेघ मुख को मोड़ अब
आते नहीं है इस डगर पे
लग रहा कल का समंदर,
सूख कर निर्जल कुआँ सा हो गया है
क्रुद्ध झँझाये चढ़ाती
त्योरियाँ हर घड़ी ज़्यादा
आदमी ने खो दिया है
आप ही अस्तित्व आधा
खेत का उगता हुआ पौधा
गिरा झर कर दुआं सा हो गया है
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