चिह्न पैंडेमिकी न कोई शेष हो
धुँध छट जाए हर, संशयों से घिरी
धूप की खिलखिलाहड सुनहरी रहे
वर्ष बीत, पलट लौट आइ ऋतु
वो ही साड़ी विदाई की पहने हुए
कुंद होती हुई चेहरे की दमक
पीत से कृष्णा गहने बदन के हए
एक आशा का बस लड़खड़ाता हुआ
स्वप्न नयनों की कोरों पे अटका हुआ
टोकरी एक एकाकियत की भरी
है शिथिल,अपने काँधे पे ढोते हुए
चुप्पियों के पहाड़ों से अब फूट कर
सरगमी राग का कोई झरना बहे
एक आभास के पाटलों पे घिरी
रह गई ज़िंदगी की सभी हलचलें
चेहरों पे मुखौटे है चिपके हुए
असली सूरत को लगती हुई अटकलें
फ़ेसबुक लाइव है ज़ूम की धूम है
किंतु अपनत्व का है सिरा ही नहीं
एक ही आस है शीघ्र ही खुल सकें
घर के द्वारों पे जकड़ी हुई आगलें
लौट कर चल पड़ें अपनी चौपाल पर
इस विजय पर्व पर यत्न ये ही रहे
याद की पुस्तकों में हुए क़ैद जो
मानचित्रों के धूमिल हुए रास्ते
एक कच्ची डगर भी नहीं शेष है
देहरी पर रुके, पाँव के वास्ते
एक आशा की किरचों में टूटी किरण
ढूँढती उँगलियाँ, जो उन्हें चुन सकें
और विक्षिप्त मन खोजता माप वे
जो की बढ़ती हुई दूरियाँ नापते
इस विजय पर्व पर कामना है यही
जो हुआ, सिर्फ़ इतिहास होकर रहे
राकेश खंडेलवाल
विजय पर्व २०२१
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