बादलों के पृष्ठ पर पिघले सितारे शब्द बन कर
चांदनी की स्याही में ढल लिख रहे हैं नाम तेरा
धुप की किरणें तेरी कुछ सुरभिमय सांसें उठाये
खींचती हैं कूचियां बन कर क्षितिज पर नव सवेरा
प्राण सलिल पा तेरा सान्निध्य रुत होती सुहागन
ओर संध्या की गली सुरमाई, होती आसमानी
शोर में डूबी नगर की चार राहो का मिलन स्थल
मधुबनी होता तेरे बस नाम का ही स्पर्श पाकर
और ढलते हैं सभी स्वर गूँज में शहनाइयों की
जब छलकती है तेरी इस चुनरी की छाँह गागर
शुभ्रगाते देह तेरी से झरी आभाये लेकर
सज रही है ज्योत्सनाओं की छटा में रातरानी
कुम्भ में साहित्य के तो रोज ही कविता नहाती
एक तेरे नाम की डुबकी महज होती फलित है
गीत औ नवगीत चाहे जोड़ ले कितना, घटा ले
व्यर्थ होता बिन तेरे इक स्पर्श के सारा गणित है
रच रहा हो काव्य कितने भाष्य कितने ये समय पर
बिन तेरे सान्निध्य के सब रह गए बन लंतरानी
पत्रिका में फेसबुक पर व्व्हाट्सएप पर गीत गज़लें
रोज ही बहते रहे हैं एक हो अविराम निर्झर
नाम तेरे के बिना बधते नयन की डोर से कब
व्यर्थ हो जाते रहे है बस नदी की धार हो कर
साक्ष्य बन कर सामने इतिहास फिर से कह रहा है
बिन तेरे ही नाम के कब पूर्ण होती है कहानी
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