गहन निशा में तम की चाहे जितनी घनी घटाएं उमड़े
पथ को आलोकित करने को प्राण दीप मेरा जलता है
पथ को आलोकित करने को प्राण दीप मेरा जलता है
पावस के अंधियारों ने कब अपनी हार कहो तो मानी
हर युग ने दुहराई ये ही घिसी पिटी सी एक कहानी
क्षणिक विजय के उन्मादों ने भ्रमित कर दिया है मानस को
पलक झुकाकर तनिक उठाने पर दिखती फिर से वीरानी
लेकिन अब ज्योतिर्मय नूतन परिवर्तन की अगन जगाने
निष्ठा मे विश्वास लिए यह प्राण दीप मेरा जलता है
खो्टे सिक्के सा लौटा है जितनी बार गया दुत्कारा
ओढ़े हुए दुशाला मोटी बेशर्मी की ,यह अँधियारा
इसीलिए अब छोड़ बौद्धता अपनानी चाणक्य नीतियां
उपक्रम कर समूल ही अबके जाए तम का शिविर उखाड़ा
छुपी पंथ से दूर, शरण कुछ देती हुई कंदराएँ जो
उनमें ज्योतिकलश छलकाने प्राण दीप मेरा जलता है
दीप पर्व इस बार नया इक संदेसा लेकर है आया
सीखा नहीं तनिक भी तुमने तम को जितना पाठ पढ़ाया
अब इस विषधर की फ़ुंकारों का मर्दन अनिवार्य हो गया
दीपक ने अंगड़ाई लेकर उजियारे का बिगुल बजाया
फ़ैली हुई हथेली अपनी में सूरज की किरणें भर कर
तिमिरांचल की आहुति देने प्राण दीप मेरा जलता है
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