एकाकियत

कैप्सूलों गोलियों की एक अलमारी

उम्र की इतनी घनी दूुश्वारियों में
आ बढ़ा
कितना अकेलापन
धुंध बन कर आँख में फिर से तिरा
बीते दिनों का
वो खिलंदड़पन
सांझ की बैसाखियों पर बोझ है भारी

स्वप्न जाकत ताक पर था टंग गया
ठुकरा निमंत्रण
लौट न आया
रह गया परछाइयों की भीड़ में
गुमनाम होकर
साथ का साया
रात गिनती गिनतियों को आज फिर हारी



जुड़ गया रिकलाइनर से और टीवी के
रिमोटों से
अटूटा एक अपनापन
बढ़ गई थी फोने के सरगम सुरों से
एक दिन जो
आज भी सुलझी नहीं अनबन
भोर संध्या रात पर एकाकीयत तारी

1 comment:

Udan Tashtari said...

कैप्सूलों गोलियों की एक अलमारी
और इन्तजार की आदी हर शाम भारी...
यह कहानी है तुम्हारी या हमारी..
या जिन्दगी के इस छोर की शाही सवारी...


वाह!! एकदम जुड़ी जुड़ी सी...

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