उम्र के इस मोड़ पर आ प्रश्न करता मौन मुझसे
क्या हुआ हासिल तुझे मन ? ये बता बन कर प्रवासी
ज़िंदगी की इस नंदी में तीर से कट कर बहा तू
हर घड़ी मँझधार में घेरा करी झंझाएँ आकर
बादलों के कम्बलों को ही यलपेटे दिन गुजरता
और संध्याएँ सुनाती भैरवी ही गुनगुनाकर
ढूँढता दिन रात लेकिन दृष्टि के वातायनों में
एक परिचित रश्मि की आभा नहीं उभरी ज़रा सी
याद की अमराइयों में कूकती हैं कोयलें नित
छटपटाता वावरा मन छाँव में इक बार आए
और मदिराती हुई इक झोंक झालर को पकड़ कर
चीर कर सीमांत को इस ओर भी धुनकोई गाए
किंतु सपनों की सभी रखाए धुंधली रह गई है
भोर हर इक बार उगती ही रही होकर कुहासी
दिन बिछाता आस की चादर सुनहरी ला डगर पर
साँझ चरवाही असंतुष्ट झुंड लेकर आइ वापस
अर्ध व्यासों में बंधे बस घूमते इक परिधि पर ही
और चलता जा रहा है दूर होते समय का रथ
शेष संचय में मिले अनुराग की पाई छुवन है
जो निधि बन कर रही है मंत्रपूरित इक ऋचा सी
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