बही हवा की झालर पर जो रश्मि कलम ने पुष्प गंध से
शब्द लिखे, सारे पढ़ डाले लेकिन मेरा नाम नहीं था
उगे दिवस के कैनवास को इजिल बने क्षितिज पर टांगा
हरी दूब के तुहिन कणों को अपने रंग पट्ट में भर कर
तितली के पर की छाया में संवरी हुई आकृतियाँ से ही
कितने चित्र बनाए उसने उतरी संध्या के आँचल पर
मैंने प्रिज्म हाथ में थामे बारीकी से इन्हें निहारा
मेरा बिम्ब न होगा उनमे यह मुझको अनुमान नहीं था
कभी सिंधु के तट पर लेटी हुई लहर को चंद्रकिरण ने
हौले हौले छेड़ इबारत कोई अंकित की सिकता पर
पुरवाएँ की पगतलियों के चुम्बन की अनुभूति संजोई
और लिखा कोई संदेसा अनायास अकुला अकुला कर
मैंने पूछा तट पर बिखरे शंख शंख सीपी सीपी से
मेरे नाम कोई संदेसा होगा उनको ज्ञान नहीं था
इतिहासों ने भोजपत्र पर करवटलेकर लिखी कथाए
कालिदास के शाकुन्तल का रूप प्रेम में डूबा लेखन
जगन्नाथ के साथ लवंगी और केस लैला की बातें
दिनकर की उर्वशी, यक्ष का मेघदूत से अंतर्वेदन
सूरा मीरा और कबीरॉ के संग महाकाव्य कितने पढ़ डाले
ढाई अक्षर व्यक्त कर सके कोई भी आसान नहीं था
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