बाग में चम्पा चमेली पूछती कचनार से यह
किस तरह खिल पाएँ? है वातावरण में जब उदासी
अर्ध उन्मीलित अधर लेकर प्रतीक्षित पाटलों पर
तुहिन कण को मिल नहीं पाया उषा से एक चुम्बन
तीर नदिया के खड़े इक पेड़ के पत्रों टंगी थी
चाँदनी पिघली हुई, गिर कर नहीं पाई तरंगन
बांसुरी की टेर सोई है कदम्ब की छाँह लेकर
किस तरह खिल पाएँ? है वातावरण में जब उदासी
अर्ध उन्मीलित अधर लेकर प्रतीक्षित पाटलों पर
तुहिन कण को मिल नहीं पाया उषा से एक चुम्बन
तीर नदिया के खड़े इक पेड़ के पत्रों टंगी थी
चाँदनी पिघली हुई, गिर कर नहीं पाई तरंगन
बांसुरी की टेर सोई है कदम्ब की छाँह लेकर
पायलों की झनझनाहट पर चढ़ी है बदहवासी
बादलों के चंद टुकड़े घूमते निस्पृह गगन में
एक दूजे से विमुख, विपरीत राहों पर भटकते
इक किनारी बिजलियों की छोर साड़ी का क्षितिज की
छोड़ कर ये पूछती है क्यों घटा बन ना बरसते
उग रही तृष्णाओं की फसलें सभी जो लहलहाती
मिल सके उनको तनिक तो तृप्ति दो पल को ज़रा सी
घिर रहे हैं बस कुहासे संशयों के भोर संध्या
दोपहर से ही अकेलापन टपकता कक्ष में आ
मौसमों की बंदिशें तो चार दिन में दूर होंगी
प्रश्न है पर कब बहारें खिलखिलाएँगी यहाँ आ
ओढ़ लेता बावरा मन आस की छिरछिर चुनरियाँ
मिल सके इस अमा की रात में थोड़ी विभा सी
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