धुन उमड़ती ही नहीं है


बज रही बैसाखियाँ सारंगियों  पर
साज से धुन अब उभरती ही नहीं है 

खेत औ खलिहान सूने. शून्य राहें 
बैठती मन मार चौपालें अकेली
दृष्टि पथराई गगन को ताकती  बस
ले नहीं पाई विदा दुल्हन नवेली
आतुरा छत रह गई फ़ैलाये  बाँहें 
आ नहीं बोला तनिक भी कोई कागा 
प्रश्न पर बस प्रश्न पूछे जा रही है
घिस चुकी रेखाए लेकर के हथेली 

मौन दम साधे खड़ी हैं किंकिणी अब
पाँव में पायल खनकती ही नहीं है 

ओढ़ सन्नाटा दुपहरी शाख़ पर आ
टकटकी बांधे सड़क को देखती है 
किंतु सूनी माँग सी वैधव्य की ले
शुष्क नज़रों से प्रतीक्षा सींचती है
फुनगियों पर उग रही नव कोंपलों ने 
रख हथेली छाँव को, पथ को निहारा
साँझ लगता रास्ता भूली हुई है
कोई परछाईं तलक न दीखती है 

कह रहा पंचांग आइ पूर्णिमा है
चाँदनी लेकिन निखरती ही नहीं है 

पार शीशे के कोई आकार धुंधला
कौन सी तस्वीर ढूँढे कौन जाने
हर नज़र हर एक चेहरा प्रश्न सूचक
उत्तरों की आस में बीते ज़मान
उग रही हैं दृष्टि में परछाईं भय की 
एक असमंजस खड़ा बाँहें पसारे 
कांपती आशा, घटा से पूछती है
आएँगे फिर से कहो कब दिन सुहाने 

पर दिशाओं के झरोखे बंद सारे 
भोर प्राची से, निकलती ही नहीं है 
















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