धूप छाँह हो जाने वाले



जुड़ते थे सम्बन्ध कभी जो बरसों साथ निभाने वाले,
नए दौर में बस दो  दिन में धूप  छाँह हो जाने वाले 

परिभाषाएँ बदल रही नित जुड़ते बिखरे संबंधो की
बदल रहे परिवेशों में अब बदली नित्य मान्यताएँ भी 
इतिहासों में बंद हो चुकी बीते कल की याद पुरानी
साँझ भुला देती हैं अब तो घटी भोर की घटनायें भी 

सूरज करता रहा नियंत्रित इतने वरसो दिन को निशी के 
निशी वासर अब एक थिरक पर अन्फ़्लिंचिंग की हो जाने वाले 

सात समंदर की दूरी को कर लेते हैं सात प्रहर जब
दूर देश के संदेशों के मानी सभी बदल जाते हैं
विरह वेदना क्षणिक, मिलन के पल सारे मुट्ठी में जकड़े 
एक निमिष में दृश्य पटल पर प्रीतम सम्मुख आ जाते हैं 

कल थे घिरे विरह के बादल, आज नहीं वे घिरने वाले 
असमंजस के पल भी अब हैं धूप छाँह हो जाने वाले 

आपस  की दूरी पल पल में होती रही संकुचित नित ही
लेकिन बढ़ती रही ह्रदय के संबँधो में गहरी खाई 
लेश मात्र भी चढ़ी सीढ़ियाँ नहीं भावना की डोरी की
भावों से सिंचित कर मन ने जितनी भी बेलें उपजाई

अनुबंधों के वटवृक्षों की जड़े खोखली ही थी शायद 
तभी दुपहरी की बेला में छांव नहीं वे देने वाले 

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