हम जो भी देते प्रकृति को, वो ब्याज सहित है लौटाती
हम बोते रहे कीकरों को, क्या निशिगंधा फिर उग पाती
है दुष्प्रभाव ये अपनी ओढ़ी हुई सभ्यता का ही तो
जो नए मुखौटे निशा दिवस चहरों पर चढ़ते जाते है
नगरों में स्वच्छ हवा थिरके पानी का नहीं प्रदूषण हो
हर राज मार्ग पर ये केवल नारे दुहराए जाते हैं
अब फूल फलों के झुरमुट की संख्या नित नित घटती जाती
अमराई में बोले न पिकी, बुलबुल भी गीत नहीं गाती
कल दूर क्षितिज तक दृष्टि क्षेत्र था हरियाली से भरा हुआ
चैती फगुआई और सावन-भादों मल्हार सुनाते थे
दीवाली के प्रज्ज्वल दीपक तय करते फागुन की दूरी
बासंती रंगों की चादर रसिया चंगों पर गाते थे
अब मरु के विस्तृत साम्राज्य की सीमाएँ बढ़ती जारी
अमराई में बोले न पिकी, पाँखुर पाँखुर झरती जाती
हम भेजा करते आमंत्रण खुद अपने घर झंझाओं को
नित राह सजाते हम सब मिल कुछ चक्रवात, तूफ़ानों की
है ज्ञात हमें क्या करने से हम पृष्ठ समय के पलट सकें
पर व्याधि हमें ये घेरे है, कल पर सब टाले जाने की
हम नहीं देखते पर विपदा सुरसा मुख सी बढ़ती जाती
अमराई में बोले न पिकी, अब मौन मयूरी रह जाती
राकेश खंडेलवाल
१३ मार्च २०२०
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