किसी धुँध में तू उलझता रहा है
नज़र के लिए सामने रख छलावा
दिवास्वप्न की थाम रंगीन डोरी
रहा डूबता जब भी उतरा ज़रा सा
अरे वावले सत्य पहचान ले अब
क्षणिक दो घड़ी के लिए जग तमाशा
यहाँ जो है तेरा, तेरी अस्मिता है
सिवा उसके पूँजी कोई भी नहीं है
जो है सिर्फ़ तेरा ही इक दायरा है
परे जिसके कुछ भी तो तेरा नहीं है
कोई साथ तेरे महज़ एक भ्रम है
न दे खुद को कोई भी झूठा दिलासा
यहाँ एक शातिर मदारी समय का
दिखाता है पल पल नया ही अज़ूबा
कभी एक पल जो नज़र ठहरती है
उभरता वहीं पर कोई दृश्य दूजा
यहाँ बिम्ब संवरे नहीं दर्पणो में
जो दिखता है वो ही दिखे है धुआँसा
चली रोज झंझा नई इक उमड़ कर
उठे हर कदम पर हजारों बगूड़े
दिशाएँ बुलाती उमड़ती घटाएं
हुए फेनिली हर लहार के झकोरे
दिवास्वप्न से दूर कर ले नयन को
हटेगा तभी ये घिरा जो कुहासा
क्षणिक दो घड़ी के लिए जग तमाशा
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