भोर होते घोलता है
धमनियों में, कौन आकर
वेद की मंत्रित ऋचाएँ
थरथाराहट शिंजिनी सी
तैरती है
तन बदन में
चित्र संवरे अँजुरी में
रश्मियों के
आचमन में
और फिर आकार लेती
हैं ह्रदय में
व्यक्तिगत सम्वेदनायें
दीप जलते पंथ में
आह्वान करते
हैं गति का
पाँव बढ़ते हैं
बिना सोचे हुए
तय क्या नियति का
और दिखती सामने
मंज़िल, बिखेरे
दीप्त होकर ज्योत्सनाएँ
चंद डावाँडोल निश्चय
घोलते हैं
संशयों की धुँध सम्मुख
फिर अनिश्चय
ला बिछता
है विजन का शून्य सा चुप
मन क्षितिज के पार ढूँढे
मिल सकें
अब कुछ नई सम्भावनाएँ
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