सम्भव नहीं गीत बन पाना

 




शब्द कबूतर के पंखों पर बैठ गगन में उड़ते फिरते
सम्भव नहीं कलम पर आकर उनका गीतों में ढल जाना

उड़े हृदय के तलघर से जब भाव बदलियोंकी सूरत ले 
खुले नयन के वातायन से सब के सब हो गए प्रकाशित 
एक हवा के चपल झकोरे की ऊँगली को थाम चल पड़े 
और लौट कर आना उनका नहीं रह गया था संभावित 

चाहा तो था भावों को कुछ शब्दों की आकृति में ढालूँ 
संभव नहीं, रहा शब्दों का  पर, कोई साँचा बन पाना 

पिघली हुई वेदनाएं हों, या हो करुणा कहीं प्लावित 
उठती हो मल्हार कहीं से या मांझी के स्वर हों गूंजे 
थाप पड़े कोई ढोलक पर, चंग बज रहा हो झम झम झम 
तान छेड़ती  कोई मुरली या कोई अलगोजा गूंजे 

सरगम का हर सुर रह जाता अपने में ही सिमट सिमट कर 
बिना शब्द के अर्थहीन हो रह जाता स्वर का सध पाना 

तितर बितर धागों से उलझे  भाव  ना बंधने पाते क्रम में
बिना व्याकरण  के शब्दों का क्या अस्तित्व कौन बतलाए
रख आना बाहर निकाल कर तार समूचे सारंगी के 
 एक अपेक्षा करते रहना  मीठी कोई तान बजाए 

कभी उमड़ आते भावों का ढलना आकृति में शब्दों की 
सम्भव होता, लेकिन रहता नहीं अर्थ वह ही रह पाना

दिसम्बर २०२१ 





1 comment:

sagaraciti said...

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